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प्रेमाश्रम (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :896
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8589
आईएसबीएन :978-1-61301-003

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‘प्रेमाश्रम’ भारत के तेज और गहरे होते हुए राष्ट्रीय संघर्षों की पृष्ठभूमि में लिखा गया उपन्यास है


विद्या ने इसका कुछ जवाब न दिया। दोनों बहनें एक ही पलंग पर लेटीं। गायत्री के मन में कई बार इच्छा हुई कि आज की घटना को विद्या से बयान कर दूँ। उनके हृदय पर एक बोझ-सा रखा था। इसे वह हल्का करना चाहती थी। ज्ञानशंकर को विद्या की दृष्टि में गिराना भी अभीष्ट था। यद्यपि उसका स्वयं अपमान होता था, लेकिन ज्ञानशंकर को लज्जित और निदिंत करने के लिए वह इतना मूल्य देने पर तैयार थी, किन्तु बात मुँह तक आकर लौट गयी। थोड़ी देर तक दोनों चुपचाप पड़ी रहीं। विद्या की आँखें तो नींद से झपकी जाती थीं और गायत्री को कोई बात न सूझती थी। अकस्मात् उसे एक विचार सूझ पड़ा। उसने विद्या को हिलाकर कहा– क्या सोने लगीं? मेरा जी चाहता है कि कल-परसों तक यहाँ से चली जाऊँ।

विद्या ने कहा– इतनी जल्द! भला जब तक मैं रहूँ तब तक तो रहो।

गायत्री– नहीं, अब यहाँ जी नहीं लगता। वहाँ काम-काज भी तो देखना है।

विद्या– लेकिन अभी तक तो तुमने बाबू जी से इसकी चर्चा भी नहीं की।

गायत्री– उनसे क्या कहना है? जाऊँ चाहे रहूँ, दोनों एक ही है।

विद्या– तो फिर मैं भी न रहूँगी, साथ ही चली जाऊँगी।

गायत्री– तुम कहाँ जाओगी? अब यही तुम्हारा घर है। तुम्ही यहाँ की रानी हो। ज्ञानबाबू से कहो, इलाके का प्रबन्ध करें। दोनों प्राणी यहीं सूखपूर्वक रहो।

विद्या– समझा तो मैंने भी यही था, लेकिन विधाता की इच्छा कुछ और ही जान पड़ती है। कई दिन से बराबर देख रही हूँ कि पण्डित परमानन्द नित्य आते हैं। चिन्ताराम भी आते जाते हैं। ये लोग कोई न कोई षड़यन्त्र रच रहे हैं। तुम्हारे चले जाने से इन्हें और भी अवसर मिल जायेगा।

गायत्री– तो क्या बाबू जी को फिर विवाह करने की सूझी है क्या?

विद्या– मुझे तो ऐसा ही मालूम होता है।

गायत्री– अगर यह विचार उनके मन में आया है तो वह किसी के रोके न रुकेंगे। मेरा लिहाज वे करते हैं, पर इस विषय में वह शायद ही मेरी राय लें। उन्हें मालूम है कि उन्हें क्या राय दूँगी।

विद्या– तुम रहतीं तो उन्हें कुछ न कुछ संकोच अवश्य होता।

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