सदाबहार >> प्रेमाश्रम (उपन्यास) प्रेमाश्रम (उपन्यास)प्रेमचन्द
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‘प्रेमाश्रम’ भारत के तेज और गहरे होते हुए राष्ट्रीय संघर्षों की पृष्ठभूमि में लिखा गया उपन्यास है
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गायत्री के जाने के बाद ज्ञानशंकर को भी वहाँ रहना दूभर हो गया। सौभाग्य उन्हें हवा के घोड़े पर बैठाये ऋद्धि और सिद्धि के स्वर्ग में लिए जाता था, किन्तु एक ही ठोकर में वह चमकते हुए नक्षत्र अदृश्य हो गये; वह प्राण-पोषक शीतल वायु, वह विस्तृत नभमण्डल और सुखद कामनाएँ लुप्त हो गयी; और वह उसी अन्धकार में निराश और विडम्बित पड़े हुए थे। उन्हें लक्षणों से विदित होता जाता था। वह राय साहब विवाह करने पर तुले हुए हैं और उनका दुर्बल क्रोध दिनोंदिन अदम्य होता जाता था। वह राय साहब की इन्द्रिय-लिप्सा पर क्षुद्रता पर झल्ला-झल्लाकर रह जाते थे। कभी-कभी अपने को समझाते कि मुझे बुरा मानने का कोई अधिकार नहीं, राय साहब अपनी जायदाद के मालिक हैं। उन्हें विवाह करने की पूर्ण स्वतन्त्रता है, वह अभी हृष्ट-पुष्ट हैं, उम्र भी ज्यादा नहीं। उन्हें ऐसी क्या पड़ी है कि मेरे लिए इतना त्याग करें। मेरे लिए यह कितनी लज्जा की बात है कि अपने स्वार्थ के लिए उनका बुरा चेतूँ, उनके कुल के अन्त होने की अमंगल-कामना करूँ। यह मेरी घोर नीचता है। लेकिन विचारों को इस उद्देश्य से हटाने का प्रयत्न एक प्रतिक्रिया का रूप धारण कर लेता था, जो अपने बहाव में धैर्य और सन्तोष के बाँध को तोड़ डालता था। तब उनका हृदय उस शुभ मुहूर्त के लिए विकल हो जाता था, जब यह अतुल सम्पत्ति अपने हाथों में आ जायेगी। जब वह यहाँ मेहमान के अस्थायी रूप से नहीं। स्वामी के स्थायी रूप से निवास करेंगे। वह नित्य इसी कल्पित सुख के भोगने में मग्न रहते थे। प्रायः रात-रात भर जागते रह जाते और आनन्द के स्वप्न देखा करते। उन्नति और सुधार के कितने ही प्रस्ताव उनके मस्तिष्क में चक्कर लगाया करते। सैर करने में उनको अब कुछ आनन्द न मिलता, अधिकार अपने कमरे में ही पड़े रहते। यहाँ तक कि आशा और भय कि अवस्था उनके लिए असह्य हो गयी। इस दुविधा में पड़े जेठ का महीना भी बीत गया और आषाढ़ आ पहुँचा।
राय साहब को अबकी पुत्र-शोक के कारण पहाड़ पर जाने में विलम्ब हो गया था। पहला छींटा पड़ते ही उन्होंने सफर की तैयारी शुरू कर दी। ज्ञानशंकर से अब जब्त न हो सका। सोचा, कौन जाने यह नैनीताल में ही किसी नये विचारों की लेडी से विवाह कर लें। यहाँ कानोंकान किसी को खबर भी न हो, अतएव उन्होंने इस शंका का अन्त करने का निश्चय कर लिया।
सन्ध्या हो गई थी। वह मन को दृढ़ किये हुए राय साहब के कमरे में गये, किन्तु देखा तो वहाँ एक और महाशय विद्यमान थे। वह किसी कम्पनी का प्रतिनिधि था। और राय साहब से उसके हिस्से लेने का अनुरोध कर रहा था। किन्तु राय साहब की बातों से ज्ञात होता था कि वह हिस्से लेने को तैयार नहीं हैं। अंत में एजेंट ने पूछा– आखिर आपको इतनी शंका क्यों है? क्या आपका विचार है कि कम्पनी की जड़ मजबूत नहीं है?
राय साहब– जिस काम में सेठ जगतराम और मिस्टर मनचूरजी शरीक हों उसके विषय में यह संदेह नहीं हो सकता।
एजेण्ट– तो क्या आप समझते हैं कि कम्पनी का संचालन उत्तम रीति न होगा?
राय साहब– कदापि नहीं?
एजेण्ट– तो फिर आपको उसका साझीदार बनने में क्या आपत्ति है? मैं आपकी सेवा में कम-से-कम पाँच सौ हिस्सों की आशा लेकर आया था। जब आप ऐसे विचारशील सज्जन व्यापारिक उद्योग से पृथक रहेंगे तो इस अभागे देश की उन्नति सदैव एक मनोहर स्वप्न ही रहेगी।
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