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प्रेमाश्रम (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :896
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8589
आईएसबीएन :978-1-61301-003

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‘प्रेमाश्रम’ भारत के तेज और गहरे होते हुए राष्ट्रीय संघर्षों की पृष्ठभूमि में लिखा गया उपन्यास है


एजेण्ट– मैं श्रीमान् से विवाद करने की इच्छा तो नहीं रखता, पर मैं स्वयं छोटा-मोटा किसान हूँ और मुझे किसानों की दशा का यथार्थ ज्ञान है। आप योरोप के किसानों को गुलाम कहते हैं लेकिन यहाँ के किसानों की दशा उससे अच्छी नहीं है। नैतिक बन्धनों के होते हुए भी ज़मींदार कृषकों पर नाना प्रकार के अत्याचार करते हैं और कृषकों की जीविका का और कोई द्वार हो तो वह इन आपत्तियों को भी कभी न झेल सकें।

राय साहब– जब नैतिक व्यवस्थाएँ विद्यमान हैं तो विदित है कि उनका उपयोग करने के लिए किसानों को केवल उचित शिक्षा की जरूरत है, और शिक्षा का प्रचार दिनों दिन-बढ़ रहा है। मैं मानता हूँ कि ज़मींदार के हाथों किसानों की बड़ी दुर्दशा होती है। मैं स्वयं इस विषय में सर्वथा निर्दोष नहीं हूँ, बेगार लेता हूँ डाँड़-बाँध भी लेता हूँ, बेदखली या इजाफा का कोई अवसर हाथ से नहीं जाने देता असामियों पर अपना रोब जमाने के लिए अधिकारियों की खुशामद भी करता हूँ, साम, दाम, दण्ड, भेद सभी से काम लेता हूँ पर इसका कारण क्या है? वही पुरानी प्रथा, किसानों की मूर्खता और नैतिक अज्ञान। शिक्षा का यथेष्ट प्रचार होते ही जमींदारों के हाथ से यह सब मौके निकल जायेंगे। मनुष्य स्वार्थी जीव है और यह असम्भव है कि जब तक उसे धींगा-धीगी के मौके मिलते रहे, वह उनसे लाभ न उठाये। आपका यह कथन सत्य है, किसानों को यह बिडम्बनाएँ इसलिए सहनी पड़ती हैं कि उनके लिए जीविका के और सभी द्वार बन्द हैं। निश्चय ही उनके लिए जीवन-निर्वाह के अन्य साधनों का अवतरण होना चाहिए, नहीं तो उनका पारस्परिक द्वेष और संघर्ष उन्हें हमेशा जमींदारों का गुलाम बनाये रखेगा, चाहे कानून उनकी कितनी रक्षा और सहायता क्यों न करे। किन्तु यह साधन ऐसे होने चाहिए जो उनके आचार-व्यवहार को भ्रष्ट न करें। उन्हें घर से निर्वासित करके दुर्व्यसनों के जाल में न फँसाएँ, उनके आत्मभिमान का सर्वनाश न करें! और यह उसी दशा में हो सकता है जब घरेलू शिल्प का प्रचार किया जाये और वह अपने गाँव में कुल और बिरादरी की तीव्र दृष्टि के सम्मुख अपना-अपना काम करते रहें।

एजेण्ट– आपका अभिप्राय काटेज इण्डस्ट्री (गृहउद्योग या कुटीर शिल्प) से है। समाचार-पत्रों में कहीं-कहीं इनकी चर्चा भी हो रही है, किन्तु इनका सबसे बड़ा पक्षपाती भी यह दावा नहीं कर सकता कि इसके द्वारा आप विदेशी वस्तुओं का सफलता के साथ अवरोध कर सकते हैं।

राय साहब– इसके लिए हमें विदेशी वस्तुओं पर कर लगाना पड़ेगा। यूरोप-वाले दूसरे देशे से कच्चा माल ले जातें हैं, जहाज का किराया देते हैं। उन्हें मजदूरों को कड़ी मजूरी देनी पड़ती है, उस पर हिस्सेदारों को नफा खूब चाहिए। हमारा घरेलू शिल्प इन समस्त बाधाओं से मुक्त रहेगा और कोई कारण नहीं कि उचित संगठन के साथ वह विदेशीय व्यापार पर विजय न पा सके। वास्तव में हमने कभी इस प्रश्न पर ध्यान ही नहीं दिया। पूंजीवाले लोग इस समस्या पर विचार करते हुए डरते हैं। वे जानते हैं कि घरेलू शिल्प हमारे प्रभुत्व का अन्त कर देगा, इसीलिए वह इसका विरोध करते रहते हैं।

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