सदाबहार >> प्रेमाश्रम (उपन्यास) प्रेमाश्रम (उपन्यास)प्रेमचन्द
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‘प्रेमाश्रम’ भारत के तेज और गहरे होते हुए राष्ट्रीय संघर्षों की पृष्ठभूमि में लिखा गया उपन्यास है
मनोहर के पाँव तले से जमीन निकल गयी। बिलासी सन्नाटे में आ गयी, बलराज के भी होश उड़ गये। गरीबों ने समझा था, बला टल गई। अपने काम-धन्धे में लगे हुए थे। इस समाचार ने आँधी के झोंके की तरह आकर नौका को डावाँडोल कर दिया। किसी के मुँह से आवाज न निकली।
बिन्दा ने फिर कहा– सबों ने कैसा अच्छा बयान दिया था। मैंने समझा था, वह अपनी बात पर अड़े रहेंगे, पर सब कायर निकले। एक ही धमकी में पानी हो गये।
मनोहर– मेरे ऊपर कोई गरद दशा आई हुई है और क्या? इस लौंडे के पीछे देखें क्या-क्या दुर्गित होती है।
बिन्दा– रात तो बहुत हो गयी है, पर बन पड़े तो लोगों के पास जाओ अरज-विनती करो। कौन जाने मान ही जाएँ।
बलराज ने तनकर कहा– न! किसी भकुए के पास जाने का काम नहीं। यही न होगा, मेरी सजा हो जायेगी। ऐसे कायरों से भगवान् बचाएँ। मुचलके के नाम से जिनके प्राण सूखे जाते हैं, उनका कोई भरोसा नहीं। यहाँ मर्द हैं, सजा से नहीं डरते। कोई चोरी नहीं की है, डाका नहीं मारा है, सच्ची बात के पीछे सजा से नहीं डरते। सजा नहीं गला कट जाय तब भी डरने वाले नहीं।
मनोहर– अरे बाबा, चुप भी रह! आया है बड़ा मर्द बन के! जब तेरी उमिर थी तो हम भी आकाश पर दिया जलाते थे, पर अब वह अकेला कहाँ से लायें?
बिन्दा– इन लड़कों की बातें ऐसी ही होती है। यह क्या जानें, माँ-बाप के दिल पर क्या गुजराती है। जाओ, कहो-सुनो, धिक्कारो, आँखें चार होने पर कुछ-न-कुछ मुरौवत आ ही जाती है।
बिलासी– हाँ, अपनी वाली कर लो। आगे जो भाग में बदा है वह तो होगा ही।
नौ बज चुके थे। प्रकृति कुहरे के सागर में डूबी हुई थी। घरों के द्वार बन्द हो चुके थे। अलाव भी ठण्डे हो गये थे। केवल सुक्खू चौधरी के कोल्हाड़े में गुड़ पक रहा था। कई आदमी भट्ठे के सामने आग ताप रहे थे। गाँव की गरीब स्त्रियाँ अपने-अपने घड़े लिये गरम रस की प्रतीक्षा कर रही थीं। इतने में मनोहर आकर सुक्खू के पास बैठ गया। चौधरी अभी चौपाल से लौटे थे और अपने मेलियों से दरोगा जी की सज्जनता की प्रशंसा कर रहे थे। मनोहर को देखते ही बात बदल दी और बोले– आओ मनोहर, बैठो। मैं तो आप ही तुम्हारे पास आने वाला था। कड़ाह की चासनी देखने लगा। इन लोगों को चासनी की परख नहीं है। कल एक पूरा ताव बिगड़ गया। दरोगा जी तो बहुत मुह फैला रहे हैं। कहते हैं, सबसे मुचलका लेंगे। उस पर सौ की थैली अलग माँगते हैं। हाकिमों के बीच में बोलना जान जोखिम है। जरा-सी सुई का पहाड़ हो गया। मुचलका का नाम सुनते ही सब लोग थरथरा रहे हैं, अपने-अपने बयान बदलने पर तैयार हो रहे हैं।
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