सदाबहार >> प्रेमाश्रम (उपन्यास) प्रेमाश्रम (उपन्यास)प्रेमचन्द
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‘प्रेमाश्रम’ भारत के तेज और गहरे होते हुए राष्ट्रीय संघर्षों की पृष्ठभूमि में लिखा गया उपन्यास है
शनैः-शनैः ज्ञानशंकर को इन खेल-तमाशों से अरुचि होने लगी। अंगूर खट्टे हो गये। ईर्ष्या, जो अपनी क्षुद्रताओं की स्वीकृति है, हृदय का काँटा बन गयी। रात-दिन इसकी टीस रहने लगी। उच्चाकांक्षाएँ उन्हें पर्वत के पादस्थल तक ले गयी; लेकिन ऊपर न ले जा सकीं। वहीं हिम्मत हारकर बैठ गये और उन धुन के पूरे, साहसी पुरुषों की निन्दा करने लगे, जो गिरते-पड़ते ऊपर चले जाते थे। यह क्या पागलपन है! लोग ख्वाहमख्वाह अँगरेजियत के पीछे लट्ठ लिये फिरते हैं। थोड़ी-सी ख्याति और सत्ता के लिए इतना झंझट और इतने रंग-रोगन पर भी असलियत का कहीं पता नहीं। सब-के-सब बहुरूपिये मालूम होते हैं। अँग्रेज लोग इनके मुँह पर चाहे न हँसे, पर मित्र-मण्डली में सब इन पर तालियाँ बजाते होंगे। और तो और लोग लेडियों के साथ नाचने पर भी मरते हैं। कैसी निर्लज्जता है, कैसी बेहयाई, जाति के नाम पर धब्बा लगाने वालो। राय साहब भी विचित्र जीव हैं। इस अवस्था में आपको भी नाचने की धुन है। ऐसा मालूम होता है मानो उच्छृंखलता सन्देह होकर दूसरों का मुँह चिढ़ा रही है। डॉक्टर चन्द्रशेखर कहने को तो दर्शन के ज्ञाता हैं, पुरुष और प्रकृति जैसे गहन विषयों पर लच्छेदार वक्तृताएँ देते हैं, लेकिन नाचने लगते हैं तो सारा पाण्डित्य धूल में मिल जाता है वह जो राजा साहब हैं इन्द्रकुमार सिंह, मटके की भाँति तोंद निकली हुई है। लेकिन आप भी अपना नृत्य-कौशल दिखाने पर उधार खाये हुये हैं और तुर्रा यह कि सब-के-सब जाति के सेवक और देश के भक्त बनते हैं। जिसे देखिए भारत की दुर्दशा पर आँसू बहाता नजर आता है। यह लोग विलासमय होटलों में शराब और लेमोनेड पीते हुए देश की दरिद्रता और अधोगति का रोना रोते हैं। यह भी फैशन में दाखिल हो गया है।
इस भाँति ज्ञानशंकर की ईर्ष्या देशानुराग के रूप में प्रकट हुई। असफल लेखक समालोचक बन बैठा। अपनी असमर्थता ने साम्यवादी बना दिया। यह सभी रँगे हुए सियार हैं, लुटेरों का जत्था है। किसी को खबर नहीं कि गरीबों पर क्या बीत रही है। किसी के हृदय में दया नहीं। कोई राजा है, कोई ताल्लुकेदार, कोई महाजन, सभी गरीबों का खून चूसते हैं, गरीबों के झोंपड़ों में सेंध मारते हैं और यहाँ आकर देश की अवनति का पचड़ा गाते हैं। भला ही है कि अधिकारी वर्ग इन महानुभावों को मुँह नहीं लगाते। कहीं वह इनकी बातों में आ जाएँ और देश का भाग्य इनके हाथों में दे दें तो जाति का कहीं नाम-निशान न रहे। यह सब दिन दहाड़े लूट खायँ, कोई इन भलेमानसों से पूछे, आप जो लाखों रुपये सैर सपाटों में उड़ा रहे हैं, उससे जाति को क्या लाभ हो रहा है? यही धन यदि जाति पर अर्पण करते तो जाति तुम्हें धन्यवाद देती और तुम्हें पूजती, नहीं तो उसे खबर भी नहीं कि तुम कौन हो और क्या करते हो। उसके लिए तुम्हारा होना न होना बराबर है। प्रार्थी को इस बात से सन्तोष नहीं होता कि तुम दूसरों से सिफारिश करके उसे कुछ दिला दोगे, उसे सन्तोष होगा जब तुम स्वयं अपने पास से थोड़ा सा निकालकर उसे दे दो।
ये द्रोहात्मक विचार ज्ञानशंकर के चित्त को मथने लगे। वाणी उन्हें प्रकट करने के लिए व्याकुल होने लगी। एक दिन वह डॉक्टर चन्द्रशेखर से उलझ पड़े। इसी प्रकार एक दिन राजा इन्द्रकुमार से विवाद कर बैठे और मिस्टर हरिदास बैरिस्टर से तो एक दिन हाथा-पाई की नौबत आ गयी। परिणाम यह हुआ कि लोगों ने ज्ञानशंकर का बहिष्कार करना शुरू किया, यहाँ तक कि राय साहब के बँगले पर आना भी छोड़ दिया। किन्तु जब ज्ञानशंकर ने अपने विचारों को एक प्रसिद्ध अँग्रेजी पत्रिका में प्रकाशित कराया तो सारे नैनीताल में हलचल मच गयी। जिसके मस्तिष्क से ऐसे उत्कृष्ट भाव प्रकट हो सकते थे, उसे झक्की या बक्की समझना असम्भव था। शैली ऐसी सजीव, चुटकियाँ ऐसी तीव्र, व्यंग्य ऐसे मीठे और उक्तियाँ ऐसी मार्मिक थीं कि लोगों को उसकी चोटों में भी आनन्द आता था। नैनीताल समाज का एक वृहत चित्र था। चित्रकार ने प्रत्येक चित्र के मुख पर उसका व्यक्तित्व ऐसी कुशलता से अंकित कर दिया था कि लोग मन-ही-मन कटकर रह जाते थे। लेख में ऐसे कटाक्ष थे कि उसके कितने ही वाक्य लोगों की जबान पर चढ़ गये।
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