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सदाबहार >> रंगभूमि (उपन्यास) रंगभूमि (उपन्यास)प्रेमचन्द
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नौकरशाही तथा पूँजीवाद के साथ जनसंघर्ष का ताण्डव; सत्य, निष्ठा और अहिंसा के प्रति आग्रह, ग्रामीण जीवन में उपस्थित मद्यपान तथा स्त्री दुर्दशा का भयावह चित्र यहाँ अंकित है
बजरंगी–पंड़ाजी, सूर को तुम आज तीस बरसों से देख रहे हो। ऐसी बात न कहो।
जगधर–सूरे में और चाहे जितनी बुराइयां हों, यह बुराई नहीं है।
भैरों–मुझे ऐसा जान पड़ता है कि हमने हक-नाहक उस पर कलंक लगाया। सुभागी आज सबेरे आकर मेरे पैरों पर गिर पड़ी और तब से घर से बाहर नहीं निकली। सारे दिन अम्मां की सेवा-टहल करती रही।
यहां तो ये बातें होती रहीं कि प्रभु का सत्कार क्यों किया जाएगा। उसी के कार्यक्रम का निश्चय होता रहा। उधर प्रभु सेवक घर चले, चले, तो आज के कृत्य पर उन्हें वह संतोष नहीं था, जो सत्कार्य का सबसे बड़ा इनाम है। इसमें संदेह नहीं कि उनकी आत्मा शांत थी।
कोई भला आदमी अपशब्दों को सहन नहीं कर सकता, और न करना ही चाहिए। अगर कोई गालियां खाकर चुप रहे, तो इसका अर्थ यही है कि पुरुषार्थहीन है, उसमें आत्माभिमान नहीं। गालियां खाकर भी जिसके खून में जोश न आए, वह जड़ है, पशु है, मृतक है।
प्रभु सेवक को खेद यह थी कि मैंने यह नौबत आने ही क्यों दी। मुझे उनसे मैत्री करनी चाहिए थी। उन लोगों को ताहिर अली के गले मिलाना चाहिए था; पर यह समय-सेवा किससे सीखूं? उंह ! ये चालें वह चले, जिसे फैलने की अभिलाषा हो, यहां तो सिमटकर रहना चाहते हैं। पापा सुनते ही झल्ला उठेंगे। सारा इलजाम मेरे सिर मढ़ेंगे। मैं बुद्धिहीन, विचारहीन, अनुभवहीन प्राणी हूं। अवश्य हूं। जिसे संसार में रहकर सांसारिकता का ज्ञान न हो, वह मंदबुद्धि है। पापा बिगड़ेंगे, मैं शांत भाव से उनका क्रोध सह लूंगा। अगर वह मुझसे निराश होकर यह कारखाना खोलने का विचार त्याग दें, तो मैं मुंह-मांगी मुराद पा जाऊं।
किंतु प्रभु सेवक को कितना आश्चर्य हुआ, जब सारा वृत्तांत सुनकर भी जॉन सेवक के मुख पर क्रोध का कोई लक्षण न दिखाई देगा; यह मौन व्यंग्य और तिरस्कार से कहीं ज्यादा दुस्सह था। प्रभु सेवक चाहते थे कि पापा मेरी खूब तंबीह करें, जिसमें मुझे अपनी सफाई देने का अवसर मिले, मैं सिद्ध कर दूँ कि इस दुर्घटना का जिम्मेदार मैं नहीं हूं। मेरी जगह कोई दूसरा आदमी होता, तो उसके सिर भी यही विपत्ति पड़ती। उन्होंने दो-एक बार पिता के क्रोध को उकसाने की चेष्टा की; किंतु जॉन सेवक ने केवल एक बार उन्हें तीव्र दृष्टि से देखा, और उठकर चले गए। किसी कवि की यशेच्छा श्रोताओं के मौन पर इतनी मर्माहत न हुई होगी।
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