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रंगभूमि (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :1153
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8600
आईएसबीएन :978-1-61301-119

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नौकरशाही तथा पूँजीवाद के साथ जनसंघर्ष का ताण्डव; सत्य, निष्ठा और अहिंसा के प्रति आग्रह, ग्रामीण जीवन में उपस्थित मद्यपान तथा स्त्री दुर्दशा का भयावह चित्र यहाँ अंकित है


वह पीछे लौटना ही चाहती थी कि जगधर ने पुकारा–सुभागी, कहां जाती है? देखी अपने खसम की करतूत, बेचारे सूरदास को कहीं का न रखा।
सुभागी ने समझा, मुझे झांसा दे रहा है। मेरे पेट की थाह लेने के लिए यह जाल फेंका है। व्यंग से बोली–उसके गुरु तो तुम्हीं हो, तुम्हीं ने मंत्र दिया होगा।

जगधर–हां, यही मेरा काम है, चोरी-डाका न सिखाऊं, तो रोटियां क्योंकर चलें !

सुभागी ने फिर व्यंग्य किया–रात ताड़ी पीने को नहीं मिली क्या?

जगधर–ताड़ी के बदले क्या अपना ईमान बेच दूंगा? जब तक समझता था, भला आदमी है, साथ बैठता था, हंसता-बोलता था, ताड़ी भी पी लेता था, कुछ ताड़ी के लालच से नहीं जाता था (क्या कहना है, आप ऐसे धर्मात्मा तो हैं !); लेकिन आज से कभी उसके पास बैठते देखा, तो कान पकड़ लेना। जो आदमी दूसरों के घर में आग लगाए, गरीबों के रुपए चुरा ले जाए, वह अगर मेरा बेटा भी हो तो उसकी सूरत न देखूं। सूरदास ने न जाने कितने जतन से पांच सौ रुपए बटोरे थे। वह सब उड़ा ले गया। कहता हूं, लौटा दो, तो लड़ने पर तैयार होता है।

सूरदास–फिर वही रट लगाए जाते हो। कह दिया कि मेरे पास रुपए नहीं थे, कहीं और जगह से मार लाया होगा; मेरे पास पांच सौ रुपए होते, तो चैन की बंसी न बजाता, दूसरों के सामने हाथ क्यों पसारता?

जगधर–सूरे, अगर तुम भरी गंगा में कहो कि मेरे रुपए नहीं है, तो मैं न मानूंगा। मैंने अपनी आँखों से वह थैली देखी है। भैरों ने अपने मुंह से कहा है कि यह थैली झोंपड़े में धरन के ऊपर मिली। तुम्हारी बात कैसे मान लूं?

सुभागी–तुमने थैली देखी है?

जगधर–हां, देखी नहीं तो क्या झूठ बोल रहा हूं?

सुभागी–सूरदास, सच-सच बता दो, रुपए तुम्हारे हैं !

सूरदास–पागल हो गई है क्या? इनकी बातों में आ जाती है ! भला मेरे पास रुपए कहां से आते?

जगधर–इनसे पूछ, रुपए न थे, तो इस घड़ी राख बचोरकर क्या ढूंढ़ रहे थे?

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