सदाबहार >> रंगभूमि (उपन्यास) रंगभूमि (उपन्यास)प्रेमचन्द
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नौकरशाही तथा पूँजीवाद के साथ जनसंघर्ष का ताण्डव; सत्य, निष्ठा और अहिंसा के प्रति आग्रह, ग्रामीण जीवन में उपस्थित मद्यपान तथा स्त्री दुर्दशा का भयावह चित्र यहाँ अंकित है
भैरों–दूसरे लड़कों की और उसकी बराबरी है? दरोगाजी की गालियां खाते हैं, तो क्या डोमड़ों की गालियां भी खाएं? अभी तो दो ही तमाचे लगाए हैं, फिर चिढ़ाए, तो उठाकर पटक दूंगा, मरे या जिए।
सूरदास–(मिट्टू का हाथ पकड़कर) मिठुआ चिढ़ा तो, देख यह क्या करते हैं। आज कुछ होना होगा, यहीं हो जाएगा।
लेकिन मिठुआ के गालों में अभी तक जलन हो रही थी, मुंह भी सूज गया था, सिसकियां बंद न होती थीं। भैरों का रौद्र रूप देखा, तो रहे-सहे होश भी उड़ गए। जब बहुत बढ़ावे देने पर भी उसका मुंह न खुला, तो सूरदास ने झुंझलाकर कहा–अच्छा, मैं ही चिढ़ाता हूं, देखूं मेरा क्या बना लेते हो !
यह कहकर उसने लाठी मजबूत पकड़ ली, और बार-बार उसी पद की रट लगाने लगा मानो कोई बालक अपना सबक याद कर रहा हो–
या बीबी की साड़ी बेच।
एक ही सांस में उसने कई बार यही रट लगाई। भैरों कहां तो क्रोध से उन्मत्त हो रहा था, कहां सूरदास का यह बाल-हठ देखकर हंस पड़ा। और लोग भी हंसने लगे। अब सूरदास को ज्ञात हुआ कि मैं कितना दीन और बेकस हूं। मेरे क्रोध का यह सम्मान है ! मैं सबल होता तो मेरा क्रोध देखकर ये लोग थर-थर कांपने लगते, नहीं तो खड़े-खड़े हंस रहे हैं, समझते हैं कि हमारा कर ही क्या सकता है। भगवान ने इतना अपंग न बना दिया होता, तो क्यों यह दुर्गत होती। यह सोचकर हठात उसे रोना आ गया। बहुत करने पर भी आंसू न रुक सके।
बजरंगी ने भैरों और जगधर दोनों को धिक्कारा–क्या अंधे से हेकड़ी जताते हो ! सरम नहीं आती? एक तो लड़के का तमाचों से मुंह लाल कर दिया, उस पर और गरजते हो। वह भी तो लड़का ही है, गरीब का है, तो क्या? जितना लाड़-प्यार उसका होता है, उतना भले घरों के लड़कों का भी नहीं होता है। जैसे और सब लड़के चिढ़ाते हैं, वह भी चिढ़ाता है। इसमें इतना बिगड़ने की क्या बात है। (जमुनी की ओर देखकर) यह सब तेरे कारण हुआ। अपने लौंडे को डांटती नहीं, बेचारे अंधे पर गुस्सा उतारने चली है।
जमुनी सूरदास का रोना देखकर सहम गई थी ! जानती थी, दीन की हाय कितनी मोटी होती है। लज्जित होकर बोली–मैं क्या जानती थी कि जरा-सी बात का इतना बखेड़ा हो जाएगा। आ बेटा मिट्ठू चल बछवा पकड़ ले, तो दूध दुहूं।
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