सदाबहार >> रंगभूमि (उपन्यास) रंगभूमि (उपन्यास)प्रेमचन्द
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नौकरशाही तथा पूँजीवाद के साथ जनसंघर्ष का ताण्डव; सत्य, निष्ठा और अहिंसा के प्रति आग्रह, ग्रामीण जीवन में उपस्थित मद्यपान तथा स्त्री दुर्दशा का भयावह चित्र यहाँ अंकित है
सूरदास–जरा इन्हीं मियां साहब से कुछ बातचीत करनी है।
दयागिरि–क्या इसी जमीन के बारे में?
सूरदास–हां, मेरा विचार है कि यह जमीन बेचकर कहीं तीर्थयात्रा करने चला जाऊं। इस मुहल्ले में अब निबाह नहीं है।
दयागिरि–सुना, आज भैरों तुम्हें मारने की धमकी दे रहा था।
सूरदास–मैं तरह न दे जाता, तो उसने मार ही दिया था। सारा मुहल्ला बैठा हंसता रहा, किसी की जबान न खुली कि अंधे-अपाहिज आदमी पर यह कुन्याव क्यों करते हो। तो जब मेरा कोई हितू नहीं है, तो मैं दूसरों के लिए क्यों मरूं?
दयागिरि–नहीं सूरे, मैं तुम्हें जमीन बेचने की सलाह न दूंगा। धर्म का फल इस जीवन में नहीं मिलता। हमें आंखें बंद करके नारायण पर भरोसा रखते हुए धर्म-मार्ग पर चलते रहना चाहिए। सच पूछो, तो आज भगवान ने तुम्हारे धर्म की परीक्षा ली है। संकट ही में धीरज और धर्म की परीक्षा होती है। देखो गुसाईंजी ने कहा हैः
जमीन पड़ी है, पड़ी रहने दो। गउएं चरती हैं, यह कितना बड़ा पुण्य है। कौन जानता है, कभी कोई दानी, धर्मात्मा आदमी मिल जाए, और धर्मशाला, कुआं, मंदिर बनवा दे, तो मरने पर भी तुम्हारा नाम अमर हो जाएगा। रही तीर्थ-यात्रा, उसके लिए रुपए की जरूरत नहीं। साधु-संत जन्म-भर यही किया करते हैं; पर घर से रुपयों की थैली बांधकर नहीं चलते। मैं भी शिवरात्रि के बाद बद्रीनारायण जानेवाला हूं। हमारा-तुम्हारा साथ हो जाएगा। रास्ते में तुम्हारी एक कौड़ी न खर्च होगी, इसका मेरा जिम्मा है।
सूरदास–नहीं बाबा, अब यह कुन्याव नहीं सहा जाता। भाग्य में धर्म करना नहीं लिखा हुआ है, तो कैसे धर्म करूंगा। जरा इन लोगों को भी तो मालूम हो जाए कि सूरे भी कुछ है।
दयागिरि–सूरे, आंखें बंद होने पर भी कुछ नहीं सूझता। यह अहंकार है, इसे मिटाओ, नहीं तो यह जन्म भी नष्ट हो जाएगा। यही अहंकार सब पापों का मूल है–
मैं अरु मोर तोर तैं माया, जेहि बस कीन्हें जीव निकाया।
न यहां तुम हो, न तुम्हारी भूमि; न तुम्हारा कोई मित्र है, न शत्रु है; जहां देखो भगवान-ही-भगवान हैं–
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