लोगों की राय

सदाबहार >> रंगभूमि (उपन्यास)

रंगभूमि (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :1153
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8600
आईएसबीएन :978-1-61301-119

Like this Hindi book 4 पाठकों को प्रिय

138 पाठक हैं

नौकरशाही तथा पूँजीवाद के साथ जनसंघर्ष का ताण्डव; सत्य, निष्ठा और अहिंसा के प्रति आग्रह, ग्रामीण जीवन में उपस्थित मद्यपान तथा स्त्री दुर्दशा का भयावह चित्र यहाँ अंकित है


बजरंगी के विचार में नायकराम ने उतनी मिन्नत-समाजत न की थी, जितनी करनी चाहिए थी। आए थे अपना काम निकालने के हेकड़ी दिखाने। दीनता से जो काम निकल जाता है, वह डींग मारने से नहीं निकलता। नायकराम ने तो लाठी कंधे पर रखी, और चले। बजरंगी ने कहा–मैं जरा गोरुओं को देखने जाता हूं, उधर से होता हुआ आऊंगा। यों बड़ा अक्खड़ आदमी था, नाक पर मक्खी न बैठने देता। सारा मुहल्ला उसके क्रोध से कांपता था, लेकिन कानूनी कारवाईयों से डरता था। पुलिस और अदालत के नाम ही से उसके प्राण सूख जाते थे। नायकराम को नित्य ही अदालत से काम रहता था, वह इस विषय में अभ्यस्त थे। बजरंगी को अपनी जिंदगी में कभी गवाही देने की भी नौबत न आई थी। नायकराम के चले आने के बाद ताहिर अली भी घर गए; पर बजरंगी वहीं आस-पास टहलता रहा कि वह बाहर निकलें, तो अपना दुःखड़ा सुनाऊं।

ताहिर अली के पिता पुलिस-विभाग के कांस्टेबिल से थानेदारी के पद तक पहुंचे थे। मरते समय कोई जायदाद तक न छोड़ी, यहां तक कि उनकी अंतिम क्रिया कर्ज से की गई; लेकिन ताहिर अली के सिर पर दो विधवाओं और उनकी संतान का भार छोड़ गए। उन्होंने तीन शादियां की थीं। पहली स्त्री से ताहिर अली थे दूसरी से माहिर अली और जाहिर अली, और तीसरी से जाबिर अली। ताहिर अली धैर्यशील और विवेकी मनुष्य थे। पिता का देहांत होने पर साल-भर तक तो रोजगार की तलाश में मारे-मारे फिरे। कहीं मवेशीखाने की मुहर्रिरी मिल गई, कहीं किसी दवा बेचनेवाले के एजेंट हो गए, कहीं चुंगी-घर के मुंशी का पद मिल गया। इधर कुछ दिनों से मिस्टर जॉन सेवक के यहां स्थायी रूप से नौकर हो गए थे। उनके आचार-विचार अपने पिता से बिल्कुल निराले थे। रोजा-नमाज के पाबंद और नीयत के साफ थे। हराम की कमाई से कोसों भागते थे। उनकी मां तो मर चुकी थीं, पर दोनों विमाताएं जीवित थीं। विवाह भी हो चुका था; स्त्री के अतिरिक्त एक लड़का था–साबिर अली, और एक लड़की-नसीमा। इतना बड़ा कुटुंब था और ३० रुपए मासिक आय ! इस महंगी के समय में, जबकि इससे पंचगुनी आमदनी में सुचारू रूप से निर्वाह नहीं होता, उन्हें बहुत कष्ट झेलने पड़ते थे; पर नीयत खोटी न होती थी। ईश्वर-भीरूता उनके चरित्र का प्रधान गुण थी। घर में पहुंचे, तो माहिर अली पढ़ रहा था, जाहिर और जाबिर मिठाई के लिए रो रहे थे, और साबिर आंगन में उछल-उछलकर बाजरे की रोटियां खा रहा था। ताहिर अली तख्त पर बैठ गए और दोनों छोटे भाइयों को गोद में लेकर चुप कराने लगे। उनकी बड़ी विमाता ने जिनका नाम जैनब था, द्वार पर खड़ी होकर नायकराम और बजरंगी की बातें सुनी थीं। बजरंगी दस ही पांच कदम चला था कि माहिर अली ने पुकारा–सुनो जी, ओ आदमी ! जरा यहां आना, तुम्हें अम्मां बुला रही हैं।

बजरंगी लौट पड़ा, कुछ आस बंधी। आकर फिर बरामदे में खड़ा हो गया जैनब टाट के परदे की आड़ में खड़ी थीं, पूछा–क्या बात थी जी?

बजरंगी–वही जमीन की बाचचीत थी। साहब इसे लेने को कहते हैं। हमारा गुजर-बसर इसी जमीन से होता है ! मुंसीजी से कह रहा हूं, किसी तरह इस झगड़े को मिटा दीजिए। नजर-नियाज देने को भी तैयार हूं, मुदा मुंसीजी सुनते ही नहीं।

जैनब–सुनेंगे क्यों नहीं, सुनेंगे, न तो गरीबों की हाय किस पर पड़ेगी? तुम भी तो गंवार आदमी हो, उनसे क्या कहने गए? ऐसी बातें मरदों से कहने की थोड़ी ही होती हैं। हमसे कहते, हम तय करा देते।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book