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रंगभूमि (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :1153
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8600
आईएसबीएन :978-1-61301-119

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नौकरशाही तथा पूँजीवाद के साथ जनसंघर्ष का ताण्डव; सत्य, निष्ठा और अहिंसा के प्रति आग्रह, ग्रामीण जीवन में उपस्थित मद्यपान तथा स्त्री दुर्दशा का भयावह चित्र यहाँ अंकित है


इतनी लंबी भूमिका के बाद जॉन सेवक अपने मतलब पर आए। बहुत सकुचाते हुए अपना उद्देश्य प्रकट किया। राजा साहब मानव-चरित्र के ज्ञाता थे, बने हुए तिलकधारियों को खूब पहचानते थे। उन्हें मुगालता देना आसान न था। किंतु समस्या ऐसी आ पड़ी थी कि उन्हें अपनी धर्म-रक्षा के हेतू अविचार का शरण लेना पड़ा। किसी दूसरे अवसर पर वह इस प्रस्ताव की ओर आंख उठाकर भी न देखते। एक दीन-दुर्बल अंधे की भूमि को, जो उसके जीवन का एक मात्र आधार हो, उसके कब्जे से निकालकर एक व्यवसायी को दे देना उनके सिद्घांत के विरुद्ध था। पर आज पहली बार उन्हें अपने नियम को ताक पर रखना पड़ा। यह जानते हुए कि मिस सोफ़िया ने उनके एक निकटतम संबंधी की प्राण-रक्षा की है, यह जानते हुए कि जॉन सेवक के साथ सद्व्यवहार करना कुंवर भरतसिंह को एक भारी ऋण से मुक्त कर देगा, वह इस प्रस्ताव की अवहेलना न कर सकते थे। कृतज्ञता हमसे वह सब कुछ करा लेती है, जो नियम की दृष्टि से त्याज्य है। यह वह चक्की है, जो हमारे सिद्धांतों और नियमों को पीस डालती है। आदमी जितना ही निःस्पृह होता है, उपकार का बोझ उसे उतना ही असह्य होता है। राजा साहब ने इस मामले को जॉन सेवक की इच्छानुसार तय कर देने का वचन दिया, और मिस्टर सेवक अपनी सफलता पर फूले हुए घर आए।

स्त्री ने पूछा–क्या तय कर आए?

जॉन सेवक–वही, जो तय करने गया था।

स्त्री–शुक्र है, मुझे आशा न थी।

जॉन सेवक–यह सब सोफी के एहसान की बरकत है। नहीं तो यह महाशय सीधे मुंह से बात करनेवाले न थे। यह उसी के आत्मसमर्पण की शक्ति है, जिसने महेंद्रकुमार सिंह जैसे अभिमानी और बेमुरौवत आदमी को नीचा दिखा दिया। ऐसे तपाक से मिले, मानों मैं उनका पुराना दोस्त हूं। यह असाध्य कार्य था, और सफलता के लिए सोफ़ी का आभारी हूं।

मिसेज सेवक–(क्रुद्ध होकर) तो तुम जाकर उसे लिवा लाओ, मैंने तो मना नहीं किया है। मुझे ऐसी बातें क्यों बार-बार सुनाते हो? मैं तो अगर प्यासी मरती भी रहूंगी, तो उससे पानी न माँगूगी। मुझे लल्लो-चप्पो नहीं आती। जो मन में है, वही मुख में है। अगर वह खुदा से मुँह फेरकर अपनी टेक पर दृढ़ रह सकती है, तो मैं अपने ईमान पर दृढ़ रहते हुए क्यों उसकी खुशामद करूं।

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