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रंगभूमि (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :1153
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8600
आईएसबीएन :978-1-61301-119

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नौकरशाही तथा पूँजीवाद के साथ जनसंघर्ष का ताण्डव; सत्य, निष्ठा और अहिंसा के प्रति आग्रह, ग्रामीण जीवन में उपस्थित मद्यपान तथा स्त्री दुर्दशा का भयावह चित्र यहाँ अंकित है


प्रभु सेवक–खुदा न करे, मैं अपनी मां का निरादर करूं। लेकिन मैं दिखावे के धर्म के लिए अपनी आत्मा पर यह अत्याचार न होने दूंगा। आप लोगों की नाराजी के खौफ से अब तक मैंने इस विषय में कभी नहीं बोला। लेकिन जब देखता हूं कि और किसी बात में तो धर्म की परवा नहीं की जाती, और सारा धर्मानुराग दिखावे के धर्म पर ही किया जा रहा है, तो मुझे संदेह होने लगता है कि इसका तात्पर्य कुछ और तो नहीं !

जॉन सेवक–तुमने किस बात में मुझे धर्म के विरुद्ध आचरण करते देखा?

प्रभु सेवक–सैकड़ों ही बातें हैं, एक हो तो कहूं।

जॉन सेवक–नहीं, एक ही बतलाओ।

प्रभु सेवक–उस बेकस अंधे की जमीन पर, कब्जा करने के लिए आप जिन साधनों का उपयोग कर रहे हैं, क्या वे धर्मसंगत हैं? धर्म का अंत वही हो गया, जब उसने कहा दिया कि मैं अपनी जमीन किसी तरह न दूंगा। कानूनी विधानों से, कूटनीति से, धमकियों से अपना मतलब निकालना आपको भले धर्मसंगत मालूम होता हो पर मुझे तो वह सर्वथा अधर्म और अन्याय ही प्रतीत होता है।

जॉन सेवक–तुम इस वक्त अपने होश में नहीं हो, मैं तुमसे वाद-विवाद नहीं करना चाहता। पहले शांत हो जाओ, फिर मैं तुम्हें इसका उत्तर दूंगा।

प्रभु सेवक क्रोध से भरा हुआ अपने कमरे में आया और सोचने लगा कि क्या करूं। यहां तक उसका सत्याग्रह शब्दों तक ही सीमित था, अब उसके क्रियात्मक होने का अवसर आ गया, पर क्रियात्मक शक्ति का उसके चरित्र में एक मात्र अभाव था। इस उद्विग्न दशा में वह कभी एक कोट पहनता, कभी उसे उतारकर दूसरा पहनता, कभी कमरे के बाहर चला जाता, कभी अंदर आ जाता। सहसा जॉन सेवक आकर बैठ गए, और गंभीर भाव से बोले–प्रभु, आज तुम्हारा आवेश देखकर मुझे जितना दुःख हुआ है, उससे कहीं अधिक चिंता हुई है। मुझे अब तक तुम्हारी व्यावहारिक बुद्धि पर विश्वास था; पर अब विश्वास उठ गया। मुझे निश्चय था कि तुम जीवन और धर्म के संबंध को भलीभांति समझते हो; पर अब ज्ञात हुआ कि सोफ़ी और अपनी माता की भांति तुम भी भ्रम में पड़े हुए हो। क्या तुम समझते हो कि मैं और मुझ-जैसे और हजारों आदमी, जो नित्य गिरजे आते हैं, भजन गाते हैं, आंखें बंद करके ईश-प्रार्थना करते हैं, धर्मानुराग में डूबे हुए हैं? कदापि नहीं। अगर अब तक तुम्हें नहीं मालूम है, तो अब मालूम हो जाना चाहिए कि धर्म केवल स्वार्थ-संगठन है। संभव है, तुम्हें ईसा पर विश्वास हो, शायद तुम उन्हें खुदा का बेटा या कम-से-कम महात्मा समझते हो, पर मुझे तो यह भी विश्वास नहीं है। मेरे हृदय में उनके प्रति उतनी ही श्रद्धा है, जितनी किसी मामूली फकीर के प्रति। उसी प्रकार फकीर भी दान और क्षमा की महिमा गाता फिरता है, परलोक के सुखों का राग गाया करता है। वह भी उतना ही त्यागी, उतना ही दीन, उतना ही धर्मरत है। लेकिन इतना अविश्वास होने पर भी मैं रविवार को सौ काम छोड़कर गिरजे अवश्य जाता हूं। न जाने से अपने समाज में अपमान होगा, उसका मेरे व्यवसाय पर बुरा असर पड़ेगा। फिर अपने ही घर में अशांति फैल जाएगी। मैं केवल तुम्हारी माता की खातिर से अपने ऊपर यह अत्याचार करता हूं, और तुमसे भी मेरा यही अनुरोध है कि व्यर्थ का दुराग्रह न करो। तुम्हारी माता क्रोध के योग्य नहीं, दया के योग्य हैं। बोले, तुम्हें कुछ कहना है?

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