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रंगभूमि (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :1153
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8600
आईएसबीएन :978-1-61301-119

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नौकरशाही तथा पूँजीवाद के साथ जनसंघर्ष का ताण्डव; सत्य, निष्ठा और अहिंसा के प्रति आग्रह, ग्रामीण जीवन में उपस्थित मद्यपान तथा स्त्री दुर्दशा का भयावह चित्र यहाँ अंकित है


ताहिर अली को निरुत्तर होना पड़ा। बेचारे अपने स्त्री के सारे गहने बेचकर खा चुके थे। अब एक छल्ला भी न था। माहिर अली अंगरेजी पढ़ता था। उसके लिए अच्छे कपड़े बनवाने पड़ते, प्रतिमास फीस देनी पड़ती। जाबिर अली और जाहिर अली उर्दू मदर से में पढ़ते थे, किंतु उनकी माता नित्य जान खाया करती थीं कि इन्हें भी अंगरेजी मदरसे में दाखिल करा दो, उर्दू पढ़ाकर क्या चपरासगिरी करानी है? अंगरेजी थोड़ी भी आ जाएगी, तो किसी-न-किसी दफ्तर में घुस ही जाएंगे। भाइयों के लालन-पालन पर उनकी आवश्यकताएं ठोकर खाती रहती थीं। पाजामें में इतने पैबंद लग जाते थे कि कपड़े का यथार्थ रूप छिप जाता था। नए जूते तो शायद इन पाँच बरसों में उन्हें नसीब ही न हुए। माहिर अली के पुराने जूतों पर संतोष करना पड़ता था। सौभाग्य से माहिर अली के पांव बड़े थे। यथासाध्य यह भाइयों को कष्ट न होने देते थे। लेकिन कभी हाथ तंग रहने के कारण उनके लिए नए कपड़े न बनवा सकते, या फीस देने में देर हो जाती, या नाश्ता न मिल सकता, या मदरसे में जलपान करने के लिए पैसे न मिलते, तो दोनों माताएँ व्यंग्यों और कटूक्तियों से उनका हृदय छेद डालती थीं। बेकारी के दिनों में वह बहुधा, अपना बोझ हल्का करने के लिए, स्त्री और बच्चों को मैके पहुंचा दिया करते थे। उपहास से बचने के खयाल से एक-आध महीने के लिए बुला लेते, और फिर किसी-न-किसी बहाने से विदा कर देते। जब से मि. जॉन सेवक की शरण आए थे, एक प्रकार से उनके सुदिन आ गए थे; कल की चिंता सिर पर सवार न रहती थी। माहिर अली की उम्र पंद्रह से अधिक हो गई थी। अब सारी आशाएं उसी पर अवलंबित थी। सोचते, जब माहिर मैट्रिक पास हो जाएगा, तो साहब से सिफारिश कराके पुलिस में भरती करा दूंगा। पचास रुपए से क्या कम वेतन मिलेगा ! हम दोनों भाइयों की आय मिलाकर ८० रुपए हो जाएगी। तब जीवन का कुछ आनंद मिलेगा। तब तक जाहिर अली भी हाथ-पैर संभाल लेगा, फिर चैन ही चैन है। बस, तीन-चार साल की और तकलीफ है। स्त्री से बहुधा झगड़ा हो जाता। वह कहा करती–ये भाई-बंद एक भी काम न आएंगे। ज्यों ही अवसर मिला, पर झाड़कर निकल जाएंगे, तुम खड़े ताकते रह जाओगे। ताहिर अली इन बातों पर स्त्री से रूठ जाते। उसे घर में आग लगाने वाली, विष की गांठ कहकर रुलाते।

आशाओं और चिंताओं से इतना दबा हुआ व्यक्ति मिसेज सेवक के कटु वाक्यों का क्या उत्तर देता? स्वामी के कोप ने ईश्वर के कोप को परास्त कर दिया। व्यथित कंठ से बोले–हुजूर का नमक खाता हूं, आपकी मरजी मेरे लिए खुदा के हुक्म का दरजा रखती है। किताबों में आका को खुश करने का वही सबाब लिखा है, जो खुदा को खुश रखने का है। हुजूर की नमकहरामी करके खुदा को क्या मुंह दिखाऊंगा !

जॉन सेवक–हां, अब आप आए सीधे रास्ते पर। जाइए, अपना काम कीजिए। धर्म और व्यापार को एक तराजू तौलना मूर्खता है। धर्म धर्म है, व्यापार व्यापार, परस्पर कोई संबंध नहीं। संसार में जीवित रहने के लिए किसी व्यापार की जरूरत है, धर्म की नहीं। धर्म तो व्यापार का श्रृंगार है। वह धनाधीशों ही को शोभा देता है। खुदा आपको समाई दे, अवकाश मिले, घर में फालतू रुपए हो, तो नमाज पढिए, हज कीजिए, मस्जिद बनवाइए, कुएं खुदवाइए; तब मजहब है, खाली पेट खुदा का नाम लेना पाप है।

ताहिर अली ने झुककर सलाम किया और घर लौट आए।

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