सदाबहार >> रंगभूमि (उपन्यास) रंगभूमि (उपन्यास)प्रेमचन्द
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नौकरशाही तथा पूँजीवाद के साथ जनसंघर्ष का ताण्डव; सत्य, निष्ठा और अहिंसा के प्रति आग्रह, ग्रामीण जीवन में उपस्थित मद्यपान तथा स्त्री दुर्दशा का भयावह चित्र यहाँ अंकित है
सूरदास चलने को उठा ही था कि सहसा एक गाड़ी की आहट मिली। रुक गया। आस बंधी। एक क्षण में फिटन आ पहुंची। सूरदास ने आगे बढ़कर कहा–दाता, भगवान तुम्हारा कल्यान करे, अंधे खबर लीजिए।
फिटन रुक गई, और चतारी के राजा साहब उतर पड़े। नायकराम उनका पंडा था। साल में दो-चार सौ रुपए उनकी रियासत से पाता था। उन्हें आशीर्वाद देकर बोला–सरकार का इधर कैसे आना हुआ? आज तो बड़ी ठंड है।
राजा साहब–यही सूरदास है, जिसकी जमीन आगे पड़ती है? आओ, तुम दोनों आदमी मेरे साथ बैठ जाओ, मैं जरा उस जमीन को देखना चाहता हूं।
नायकराम–सरकार चलें, हम दोनों पीछे-पीछे आते हैं।
राजा साहब–अजी आकर बैठ जाओ, तुम्हें आने में देर होगी, और मैंने अभी संध्या नहीं की है।
सूरदास–पंडाजी, तुम बैठ जाओ, मैं दौड़ता हुआ चलूंगा, गाड़ी के साथ-ही-साथ पहुंचूंगा।
राजा साहब–नहीं-नहीं, तुम्हारे बैठने में कोई हरज नहीं है, तुम इस समय भिखारी सूरदास नहीं, जमींदार सूरदास हो।
नायकराम–बैठो सूरे, बैठो। हमारे सरकार साक्षात देवरूप हैं।
सूरदास–पंडाजी, मैं...
राजा साहब–पंडाजी, तुम इनका हाथ पकड़कर बिठा दो, यों न बैठेंगे।
नायकराम ने सूरदास को गोद में उठाकर गद्दी पर बैठा दिया, आप भी बैठे, और फिटन चली। सूरदास को अपने जीवन में फिटन पर बैठने का यह पहला ही अवसर था। ऐसा जान पड़ता था कि मैं उड़ा जा रहा हूं। तीन-चार मिनट में जब गोदाम पर गाड़ी रुक गई और राजा साहब उतर पड़े, तो सूरदास को आश्चर्य हुआ कि इतनी जल्दी क्योंकर आ गए।
राजा साहब–जमीन तो बड़े मौके की है।
सूरदास–सरकार, बाप दादों की निसानी है।
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