सदाबहार >> रंगभूमि (उपन्यास) रंगभूमि (उपन्यास)प्रेमचन्द
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नौकरशाही तथा पूँजीवाद के साथ जनसंघर्ष का ताण्डव; सत्य, निष्ठा और अहिंसा के प्रति आग्रह, ग्रामीण जीवन में उपस्थित मद्यपान तथा स्त्री दुर्दशा का भयावह चित्र यहाँ अंकित है
सूरदास–सरकार, पुरुखों की यही निशानी है, बेचकर उन्हें कौन मुंह दिखाऊंगा?
जॉन सेवक–यहीं सड़क पर एक कुआं बनवा दूंगा। तुम्हारे पुरुखों का नाम चलता रहेगा।
सूरदास–साहब, इस जमीन से मुहल्लेवालों का बड़ा उपकार होता है। कहीं एक अंगुल-भर चरी नहीं है। आस-पास के सब ढोर यहीं चरने आते हैं। बेच दूंगा, तो ढोरों के लिए कोई ठिकाना न रह जाएगा।
जॉन सेवक–कितने रुपये साल चराई के पाते हो?
सूरदास–कुछ नहीं, मुझे भगवान खाने-भर को यों ही दे देते हैं, तो किसी से चराई क्यों लूं? किसी का और कुछ उपकार नहीं कर सकता, तो इतना ही सही।
जॉन सेवक–(आश्चर्य से) तुमने इतनी जमीन यों ही चराई के लिए छोड़ रखी है? सोफ़िया सत्य कहती थी कि तुम त्याग की मूर्ति हो। मैंने बड़ों-बड़ों में इतना त्याग नहीं देखा। तुम धन्य हो ! लेकिन पशुओं पर इतनी दया करते हो, तो मनुष्यों को कैसे निराश करोगे? मैं यह जमीन लिए बिना तुम्हारा गला न छोडूंगा।
सूरदास–सरकार, यह जमीन मेरी है जरूर, लेकिन जब तक मुहल्लेवालों से पूछ न लूं, कुछ कह नहीं सकता। आप इसे लेकर क्या करेंगे?
जॉन सेवक–यहां एक कारखाना खोलूंगा, जिससे देश और जाति की उन्नति होगी, गरीबों का उपकार होगा, हजारों आदमियों की रोटिया चलेंगी। इसका यश भी तुम्हीं को होगा।
सूरदास–हुजूर, मुहल्लेवालों से पूछे बिना मैं कुछ नहीं कह सकता।
जॉन सेवक–अच्छी बात है, पूछ लो। मैं फिर तुमसे मिलूंगा। इतना समझ रखो कि मेरे साथ सौदा करने में तुम्हें घाटा नहीं होगा। तुम जिस तरह खुश होगे, उसी तरह खुश करूंगा। यह लो (जेब से पांच रुपए निकलाकर), मैंने तुम्हें मामूली भिखारी समझ लिया था, उस अपमान को क्षमा करो।
सूरदास–हुजूर, मैं रुपए लेकर क्या करूंगा? धर्म के नाते दो-चार पैसे दे दीजिए, तो आपका कल्याण मनाऊंगा। और किसी नाते से मैं रुपए न लूंगा।
जॉन सेवक–तुम्हें दो-चार पैसे क्या दूं? इसे ले लो, धर्मार्थ ही समझो।
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