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रूठी रानी (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :278
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8610
आईएसबीएन :978-1-61301-181

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रूठी रानी’ एक ऐतिहासिक उपन्यास है, जिसमें राजाओं की वीरता और देश भक्ति को कलम के आदर्श सिपाही प्रेमचंद ने जीवन्त रूप में प्रस्तुत किया है


रावल ने अपनी रानी को बुलाया और किले के झरोखे से राव मालदेव की सवारी दिखाकर कहा– ‘‘यह वही आदमी है जिसके डर से न मुझे रात को नींद आयी है और न तुझे कल पड़ती है। यह अब इसी दरवाजे पर तोरन बांधेगा जो अक्सर उसी के डर के मारे बन्द रहता है। मगर देख मैं भी क्या करता हूं। अगर चंवरी में से बचकर चला गया तो मुझे केवल रावल मत कहना। बेटी तो विधवा हो जाएगी पर तेरे दिल का कांटा जन्म भर के लिए निकल जाएगा, बल्कि सारे राजपूताने को अमन-चैन हासिल हो जाएगा।’’

रानी यह सुनकर रोने लगी। रावल ने डांटकर कहा– ‘‘चुप ! रोने लगी तो बात फूट जाएगी, फिर खैरियत नहीं, यह जालिम सभी को खा जाएगा। देख जरा, शादी करने आया है मगर फौज साथ लाया है कि जैसे किसी से लड़ने जा रहा हो इतनी फौज तो गढ़सोलर (जैसलमेर की एक झील) का सारा पानी एक ही दिन में पी जाएगी। हम तुम और सब शहर के बाशिन्दे प्यासे मर जाएंगे।’’

रानी को बेटी के विधवा हो जाने के डर से शोक तो बहुत हुआ मगर पति की बात मान गयी और छाती पर पत्थर रखकर चुप ही रही। उसकी घबड़ाहट और परेशानी छिपाए नहीं छिपती थी।

बेटी, मां को घबरायी हुई देखकर, समझ गयी कि दाल में कुछ काला है, मगर कुछ पूछने की हिम्मत न पड़ी। बेटी की जात, इतनी ढिठाई कैसे करती? मां का रोना मुहब्बत का रोना न था। जब उसने मां की बेचैनी हर क्षण बढ़ते हुए देखी तो ताड़ गयी कि आज सुहाग और रंडापा साथ मिलने वाला है। जी में बहुत तड़पी, तिलमिलायी, मगर कलेजा मसोसकर रह गयी। क्या करती? हमारे यहां बेटी बिन सींगों की गाय है। मां बाप उसके रखवाले हैं। मगर जब मां बाप ही उसकी जान के गाहक हो जाएं तो कौन किससे कहे। सखी सहेलियां फूली-फूली फिरती थीं। राजमहल में शादियाने बज रहे थे, चारों तरफ खुशी के जलवे नजर आते थे। मगर अफसोस, किसी को क्या मालूम कि जिस दुल्हन के लिए यह सब हो रहा है, वह अन्दर ही अन्दर घुली जा रही है। सखियां उसे दुल्हन बना रही हैं, कोई उसके हाथ-पांव में मेंहदी रचाती है, कोई मोतियों से मांग भरती है, कोई चोटी में फूल गूंथती है, कोई आइना दिखाकर कहती है– खूब बन्नी। पर यह कोई नहीं जानता कि बन्नी की जान पर आ बनी है। ज्यों-ज्यों दिन ढलता है, उसके चेहरे का रंग उड़ता जाता है। सखियां और ही ध्यान में हैं, यहां बात ही और है।

उमादे यकायक सखियों के झुरमुट से उठ गयी और भारीली नाम की एक सुघड़ सहेली को इशारे से अलग बुलाकर कुछ बातें करने लगी।

भारीली रूप बदलकर चुपके से राघोजी ज्योतिषी के पास गयी और पूछने लगी– ‘क्या आपने किसी कुंवारी कन्या के ब्याह का मुहूर्त निकाला है?’’ उन्होंने जवाब दिया– ‘‘और किसी का तो नहीं, रावल जी की बाई के ब्याह का मुहूर्त अलबत्ता निकाला है।’’

भारीली– ‘‘क्या आप फेरों के वक्त भी जाएंगे?’’

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