सदाबहार >> रूठी रानी (उपन्यास) रूठी रानी (उपन्यास)प्रेमचन्द
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रूठी रानी’ एक ऐतिहासिक उपन्यास है, जिसमें राजाओं की वीरता और देश भक्ति को कलम के आदर्श सिपाही प्रेमचंद ने जीवन्त रूप में प्रस्तुत किया है
उसने फिर अर्ज की– ‘‘सती माता, आग तो मैं दूंगा पर मातमी फर्श बिछाकर बारह दिन कहां बैठूंगा। मेरा तो घर भी इतना बड़ा नहीं कि जोधपुर की रानी का दाह करके उसमें मातम कर सकूं। मैं पेड़ों के तले तारों की छांव में रात काटा करता हूं।’’
उमा देई ने यह सुनकर मुंशी को इशारा किया। उसने उसी दम राणा जी के नाम सतियों की तरफ से खत लिखा कि राम हमको बगैर सती किए चला गया है, अब यह कलेवा गांव उससे छीनकर जीत मालवत राठौर को दे दें। इस तरह सती ने दस हजार का गांव उस राठौर गरीब को दिला दिया।
जीत मालवत ने चिट्ठी हाथ में ली और फौरन नहा-धोकर चिता में आग दे दी। दम के दम में वहां राथ की एक ढेरी के सिवा कोई निशान बाकी न रहा। घड़ी-दो-घड़ी में हवा ने जर्रों को इधर-उधर बिखेरकर और भी किस्सा तमाम कर दिया।
यादगारे रौनके महफिल थी परवाने की खाक
मगर खाक न रही तो क्या, रूठी रानी का नाम अभी तक चला आता है। लोग अभी तक उसके नाम का अदब करते हैं। इस तरह शादी के सत्ताईस बरस बाद उमा देई का मान टूटा और मान के साथ जिन्दगी का प्याला भी टूट गया। उमा देई भट्टानी तुझे धन्य है ! जब तक तू जिन्दा रही, तूने अपनी आन निबाही और मरी तो भी आन के साथ मरी। तू विमान पर चढ़ जा फरिश्ते हाथों में फूल लिए तेरे इन्तजार में खड़े हैं कि तुझे देखें और फूलों की बरखा करें। ऐ पवित्र देवी, जा सतीत्व तुझ पर न्यौछावर होने को तैयार है और तेरा प्यारा पति जिसके नाम पर तूने जान दी, आंखें बिछाए तेरी प्रतीक्षा कर रहा है।
उमा देई भट्टानी के सती होने की खबर जब जोधपुर पहुंची तो लोग धन्य-धन्य करने लगे। कायम रहे वह भाटी वंश जिसमें ऐसी-ऐसी राजकुमारियां पैदा होती है, पति के रूठने पर भी जिनके सतीत्व की चादर पर कभी कोई धब्बा नहीं लगता, जिससे रूठती हैं, उसी के क़दमों पर अपना सिर निछावर कर देती हैं ! ऐसा रूठना कहीं किसी ने देखा है।
राव जी के देहान्त के बारहवें दिन जीत मालवत के लिए जोधपुर पगड़ी आयी। उसने सब क्रियाकर्म करके पगड़ी बांधी, फिर उदयपुर जाकर वह चिट्ठी राजा उदयसिंह को दी। उन्होंने चिट्ठी पढ़कर आदरपूर्वक उसे सिर पर रख लिया और कलेवा का पट्टा उसके नाम लिख दिया। उसने लौटकर उस गांव पर अपना कब्जा कर लिया। जहां रूठी रानी सती हुई थी, वहां एक पक्की छतरी बनवां दी थी, जिसका निशान आज तक मौजूद है। रूठी रानी की सिफारिश से जिस तरह जीत मालवत को कलेवा मिल गया उसी तरह उसकी बद्दुआ भी बेअसर न हुई। कुमार राम को जोधपुर की गद्दी पर बैठना नसीब न हुआ। उदयसिंह और अकबर के सम्मिलित प्रयत्न भी उसे वहां का राज दिलाने में नाकाम रहे। इसी नाकामी से वह कुछ दिनों देश निकालें की मुसीबतें झेलकर आखिरकार मर गया और अपने अरमान अपने साथ लेता गया। उसके पोते केशवदास को, जो अकबर और जहांगीर के तजकिरों में केशव मारू के नाम से मशहूर है, मालवा में एक छोटी-सी जागीर मिली थी जिसका नाम अमझेरा था। मगर सन् १८५७ ई. के गदर में वह भी जब्त हो गई।
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