लोगों की राय

नाटक-एकाँकी >> संग्राम (नाटक)

संग्राम (नाटक)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :283
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8620
आईएसबीएन :978-1-61301-124

Like this Hindi book 10 पाठकों को प्रिय

269 पाठक हैं

मुंशी प्रेमचन्द्र द्वारा आज की सामाजिक कुरीतियों पर एक करारी चोट


सबल– और लोग आपको इस काम में मदद दे सकते हैं, मैं नहीं दे सकता। मैं रैयत का मित्र बन कर रहना चाहता हूं, शत्रु बन कर नहीं। अगर रैयत को गुलामी में जकड़ और अंधकार में डाले रखने के लिए जमींदारी की सृष्टि की गयी है तो मैं अत्याचार का पुरस्कार न लूंगा चाहे वह रियासत ही क्यों न हो। मैं अपने देशबंधुओं के मानसिक और आत्मिक विकास का इच्छुक हूं। दूसरों को मूर्ख और अशक्त रख कर अपना ऐश्वर्य नहीं चाहता।

सपरिटेंडेंट– तुम सरकार से बगावत करता है।

सबल– अगर इसे बगावत कहा जाता है तो मैं बागी ही हूं।

सुपरिटेंडेट– हां, यही बगावत है। देहातों में पंचायत खोलना बगावत है, लोगों को शराब पीने से रोकना बगावत है, लोगों को अदालतों में जाने से रोकना बगावत है, सरकारी आदमियों का रसद-बेगार बंद करना बगावत है।

सबल– तो फिर मैं बागी हूं।

अचल– मैं भी बागी हूं।

सुपरिंटेंडेट– गुस्ताख लड़का।

इन्स्पेक्टर– हुजूर, कमरे में चलें, वहां मैंने बहुत– से कागजात जमा कर रखे हैं।

सुपरिंटेंडेट– चलो।

इन्स्पेक्टर– देखिए, यह पंचायतों की फिहरिस्त है और पंचों के नाम है।

सुपरिंटेंडेट– बहुत काम का चीज है।

इन्स्पेक्टर– यह पंचायतों पर एक मजमून है।

सुपरिंटेंडेट– बहुत काम का चीज है।

इन्स्पेक्टर– यह कौम के लीडरों की तस्वीरों का अल्बम है।

सुपरिंटेंडेटन– बहुत काम का चीज है।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book