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संग्राम (नाटक)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :283
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8620
आईएसबीएन :978-1-61301-124

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मुंशी प्रेमचन्द्र द्वारा आज की सामाजिक कुरीतियों पर एक करारी चोट


ज्ञानी– महाराज आपकी अमृतवाणी से मेरे चित्त को बड़ी शांति मिल रही है।

ज्ञानी– महाराज, आपकी अमृतवाणी से मेरे चित्त को बड़ी शांति मिल रही है।

चेतन– मैं सर्वस्व हूं। तेरी सम्पति हूं, तेरी प्रतिष्ठा हूं, तेरा पति हूं, तेरा पुत्र हूं, तेरी माता हूं, तेरा पिता हूं, तेरा स्वामी हूं, तेरा सेवक हूं, तेरा दान हूं, तेरा व्रत हूं। हां, मैं तेरा स्वामी हूं और तेरा ईश्वर हूं। तू राधिका है, मैं तेरा कन्हैया हूं, तू स्वर है, मैं उसका लालित्य हूं, तू पुष्प है, मैं उसका सुगंध हूं।

ज्ञानी– भगवन् मैं आपके चरणों की रज हूं। आपकी सुधा वर्षा से मेरी आत्मा तृप्त हो गयी।

चेतन– तेरा पति तेरा शत्रु है, जो तुझे कुकृत्यों का भागी बनाकर तेरी आत्मा का सर्वनाश कर रहा है।

ज्ञानी– (मन में) वास्तव में उनके पीछे मेरी आत्मा तृप्त हो गयी।

चेतन– तेरा पति तेरा शत्रु है, जो तुझे अपने कुकृत्यों का भागी बनाकर तेरी आत्मा का सर्वनाश कर रहा है।

ज्ञानी– (मन में) वास्तव में उनके पीछे मेरी आत्मा कलुषित हो रही है। उनके लिए मैं अपनी मुक्ति क्यों बिगाड़ूं। अब उन्होंने अधर्म पथ पर पग रखा है। मैं उनकी सहभागिनी क्यों बनूं? (प्रकट) स्वामी जी, अब मैं आपकी शरण आयी हूं, मुझे उबारिए।

चेतन– प्रिये, हम और तुम एक हैं, कोई चिंता मत करो। ईश्वर ने तुम्हें मंझधार में डूबने से बचा लिया। वह देखो सामने ताक पर बोतल है। उसमें महाप्रसाद रखा हुआ है। उसे उतार कर अपने कोमल हाथों से मुझे पिलाओ। और प्रसाद-स्वरूप स्वयं पान करो। तुम्हारा अंतःकरण आलोकमल हो जायेगा। सांसारिकता की कलिमा एक क्षण में कट जायेगी और भक्ति का उज्जवल प्रकाश प्रस्फुटित हो जायेगा। यह वह सोमरस है जो ऋषिगण पान करके योगबल प्राप्त किया करते थे।

ज्ञानी– बोतल उतारकर चेतनदास के कमंडल में उंड़ेलती है, चेतनदास पी जाते हैं।

चेतन– यह प्रसाद तुम भी पान करो।

ज्ञानी– भगवन् मुझे क्षमा कीजिए।

चेतन– प्रिये, यह तुम्हारी पहली परीक्षा है।

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