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संग्राम (नाटक)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :283
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8620
आईएसबीएन :978-1-61301-124

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मुंशी प्रेमचन्द्र द्वारा आज की सामाजिक कुरीतियों पर एक करारी चोट


भृगु– अबकी एक गहरी रकम हाथ लगने वाली है। एक ठाकुर ने कानों की बाली हमारे यहां गिरो रखी थी। वादे के दिन टल गये। ठाकुर का कहीं पता नहीं। पूरब गया था। न जाने मर गया था क्या। मैंने सोचा है तुम्हारे पास जो गिन्नी रखी है उसमें चार-पांच रुपये और मिलाकर बाली छुड़ा लूं। ठाकुर लौटेगा तो देखा जायेगा। ५० रु से कम का माल नहीं है।

चम्पा– सच!

भृगु– हां, अभी तौले आता हूं। पूरे दो तोले है।

चम्पा– तो कब ला दोगे?

भृगु– कल लो। वह तो अपने हाथ का खेल है। आज दाल में नमक क्यों ज्यादा हुआ?

चम्पा– सुबह कहने लगीं, खाने में नमक ही नहीं है। मैंने इस बेला नमक पीसकर उनकी थाली में ऊपर से डाल दिया कि खाओ खूब जी भर के। बह एक-न-एक खुचड़ निकालती है तो मैं तो उन्हें जलाया करती हूं।

भृगु– अच्छा अब मुझे भी भूख लगी है, चलो।

चम्पा– (आप ही आप) सिर में जरा-सी चोट लगी तो क्या, कानों की बालियां तो मिल गयी। इन दामों तो चाहे कोई मेरे सिर पर दिन-भर थालियां पटका करे (प्रस्थान)

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