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संग्राम (नाटक)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :283
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8620
आईएसबीएन :978-1-61301-124

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मुंशी प्रेमचन्द्र द्वारा आज की सामाजिक कुरीतियों पर एक करारी चोट

तीसरा दृश्य

(समय– ८ बजे दिन, स्थान– सबलसिंह का मकान। कंचनसिंह अपनी सजी हुई बैठक में दुशाला ओढ़े, आंखों पर सुनहरी ऐनक चढ़ाये मसनद लगाये बैठे हैं, मुनीम जी बही में कुछ लिख रहे हैं।)

कंचन– समस्या यह है कि सूद की दर कैसे घटाई जाये। भाई साहब मुझसे नित्य ताकीद किया करते हैं कि सूद कम लिया करो। किसानों की ही सहायता के लिए उन्होंने मुझे इस कारोबार में लगाया। उनका मुख्य उद्देश्य यहीं है। पर तुम जानते हो धन बिना धर्म नहीं होता। इलाके की आमदनी घर के जरूरी खर्च के लिए भी काफी नहीं होती। भाई साहब ने किफायत का पाठ नहीं पढ़ा। उनके हजारों रुपये साल तो केवल अधिकारियों के सत्कार की भेंट हो जाते हैं। घुड़दौड़ और पोलो और क्लब के लिए धन चाहिए। अगर उनके आसरे रहूं तो सैकड़ों रुपये जो मैं स्वयं साधुजनों की अतिथि-सेवा में खर्च करता हूं कहां से आयें।

मुनीम– वह बुद्धिमान पुरुष हैं, पर न जाने यह फ़जूलखर्ची क्यों करते है?

कंचन– मुझे बड़ी लालसा है कि एक विज्ञान धर्मशाला बनवाऊँ। उसके लिए धन कहां से आयेगा? भाई साहब के आज्ञानुसार नाम-मात्र के लिए ब्याज लूं तो मेरी सब कामनाएं धरी रह जायें। मैं अपने भोग-विलास के लिए धन नहीं बटोरना चाहता, केवल परोपकार के लिए चाहता हूं। कितने दिनों से इरादा कर रहा हूं कि एक सुन्दर वाचनालय खोल दूं। पर पर्याप्त धन नहीं। यूरोप में केवल एक दानवीर ने हजारों वाचनालय खोल दिये हैं। मेरा हौसला इतना तो नहीं पर कम-से-कम एक उत्तम वाचनालय खोलने की अवश्य इच्छा है। सूद न लूं तो मनोरथ पूरे होने के क्या साधन हैं? इसके अतिरिक्त यह भी तो देखना चाहिए कि मेरे कितने रुपये मारे जाते हैं। जब आसामी के पास कुछ जायदाद ही हो तो रुपये कहां से वसूल हों। यदि यह नियम कर लूं कि बिना अच्छी जमानत के किसी को रुपये ही दूंगी तो गरीबी का काम कैसे चलेगा? अगर गरीबों से व्यवहार न करूं तो अपना काम नहीं चलता। वह बेचारे रुपये चूका तो देते हैं। मोटे आदमियों से लेन-देने कीजिए तो अदालत गये बिना कौड़ी नहीं वसूल होती।

(हलधर का प्रवेश)

कंचन– कहो हलधर, कैसे चले आये?

हलधर– कुछ नहीं सरकार, सलाम करने चला आया।

कंचन– किसान लोग बिना किसी प्रयोजन के सलाम करने नहीं चलते। फारसी कहावत है– सलामे दोस्ताई बेग़रज़ नेस्त।

हलधर– आप तो जानते ही हैं फिर पूछते क्यों हैं? कुछ रुपयों का काम था।

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