नाटक-एकाँकी >> संग्राम (नाटक) संग्राम (नाटक)प्रेमचन्द
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मुंशी प्रेमचन्द्र द्वारा आज की सामाजिक कुरीतियों पर एक करारी चोट
हलधर– दादा, यह सब तुम्हारा आशीर्वाद है। खेती न लगती तो काका की बरसी कैसे होती?
फत्तू– हा, बेटा, भैया का काम दिल खोल कर करना।
हलधर– तुम्हें मालूम है दादा, चांदी का क्या भाव है?
एक कंगन बनवाया था।
फत्तू– सुनता हूं अब रुपये की रुपये-भर हो गयी है। कितने की चाँदी लोगे?
हलधर– यही कोई ४०-४५ रुपये की।
फत्तू– जब कहना चल कर ले दूंगा। हां, मेरा इरादा कटरे जाने का है। तुम भी तो चलो तो अच्छा है। एक अच्छी भैस लाना। गुड़ के रुपये तो अभी रखे होंगे न?
हलधर– कहां दादा, वह सब तो कंचनसिंह को दे दिये। बीघे-भर भी तो न थी, कमाई भी अच्छी न हुई थी, नहीं तो क्या इतनी जल्दी पेल-पाल कर छुट्टी पा जाता?
फत्तू– महाजन से तो कभी गला ही नहीं छूटता।
हलधर– दो साल भी तो लगातार खेती नहीं जमती, गला कैसे छूटे!
फत्तू– वह घोड़े पर कौन आ रहा है? कोई अफसर है क्या?
हलधर– नहीं, ठाकुर साहब तो हैं। घोड़ा नहीं पहचानते? ऐसे सच्चे पानी का घोड़ा दस-पांच कोस तक नहीं है।
फत्तू– सुना एक हजार दाम लगते थे पर नहीं दिया।
हलधर– अच्छा जानवर बड़े भागों से मिलता है। कोई कहता था अबकी घुड़दौड़ में बाजी जीत गया। बड़ी-बड़ी दूर से घोड़े आये थे, पर कोई इसके सामने न ठहरा। कैसा शेर की तरह गरदन उठाकर चलता है।
फत्तू– ऐसे सरदार को ऐसा ही घोड़ा चाहिए। आदमी हो तो ऐसा हो। अल्लाह ने इतना कुछ दिया है, पर घमंड छू तक नहीं गया। एक बच्चा भी जाये तो उससे प्यार से बातें करते हैं। अबकी ताऊन के दिनों में इन्होंने दौड़ धूप न की होती सैकड़ों जानें जाती।
हलधर– अपनी जान को तो डरते ही नहीं। इधर ही आ रहे हैं। सवेरे-सवेरे भले आदमी के दर्शन हुए।
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