नाटक-एकाँकी >> संग्राम (नाटक) संग्राम (नाटक)प्रेमचन्द
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मुंशी प्रेमचन्द्र द्वारा आज की सामाजिक कुरीतियों पर एक करारी चोट
मंगरू-(हरदास को कनखियों से देखकर) बेचारा हलधर तो बिना मौत मर गया। १०० रु. तो सीधे कर लोगे?
सलोनी– (मुंह चिढ़ा कर) हां, दलाली के कुछ पैसे तुझे भी मिल जायेंगे। मुंह धो रखना। हां बेटा, उसे छुड़ाने के लिए २५० रु. की क्या फिकर करोगे? कोई महाजन खड़ा किया है?
फत्तू– नहीं काकी, महाजनों के जाल में न पड़ूंगा। कुछ तुम्हारी बहू के गहने-पाते हैं वहा गिरो रख दूंगा। रुपये भी उसके पास कुछ-न-कुछ निकल ही आयेंगे। बाकी रुपये अपने दोनो नाटे बेचकर खड़े कर लूंगा।
सलोनी– महीने ही भर में तुम्हें फिर बैल चाहिए होंगे।
फत्तू– देखा जायेगा। हलधर के बैलों से काम चलाऊंगा।
सलोनी– बेटा, तुम तो हलधर के पीछे तबाह हो गये।
फत्तू– काकी, इन्हीं दिनों के लिए तो छाती फाड़-फाड़ कमाते हैं। और लोग थाने अदालतों में रुपये बर्बाद करते हैं। मैंने तो एक पैसा भी बर्बाद नहीं किया। हलधर कोई गैर तो नहीं है, अपना ही लड़का है। अपना लड़का इस मुसीबत में होता तो उसको छुड़ाना पड़ता न। समझ लूंगा कि अपनी बेटी के निकाह में लग गये।
सलोनी– (हरदास की ओर देखकर) देखा, मर्द ऐसे होते हैं। ऐसे ही सपूतों के जन्म से माता का जीवन सुफल होता है। तुम दोनों हलधर के पट्टीदार हो, एक ही परपोते हो, पर तुम्हारा लोहू सफेद हो गया है। तुम तो मन में खुश होगे कि अच्छा हुआ वह गया, अब उसके खेतों पर हम कब्जा कर लेंगे।
हरदास– काकी, मुंह न खुलवाओ। हमें कौन हलधर से बाह-बाही लूटनी है, न एक के दो वसूल करने हैं। हम क्यों इस झमेले में पड़ें। यहां न ऊधो का लेना, न माधो का देना, अपने काम-से-काम है। फिर हलधर ने कौन यहां किसी की मदद कर दी? प्यासों मर भी जाते तो पानी को न पूछता। हां, दूसरों के लिए चाहे घर लूटा देते हों।
मगरू– हलधर की बात ही क्या है, अभी कल का लड़का है। उसके बाप ने भी किसी की मदद की? चार दिन की आयी बहू है, वह भी हमें दुश्मन समझती है।
सलोनी– (फत्तू से) बेटा, सांझ हुई, दियाबत्ती करने जाती हूं। तुम थोड़ी देर में पास आना, कुछ सलाह करूंगी।
फत्तू– अच्छा एक गीत तो सुनती जाओ। महीनों हो गये तुम्हारा गाना नहीं सुना।
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