नाटक-एकाँकी >> संग्राम (नाटक) संग्राम (नाटक)प्रेमचन्द
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मुंशी प्रेमचन्द्र द्वारा आज की सामाजिक कुरीतियों पर एक करारी चोट
नौवां दृश्य
[स्थान– मधुबन, हलधर का मकान, गांव के लोग जमा है। समय– ज्येष्ठ की संध्या।]
हलधर– (बाले बढ़े हुए, दुर्बल, मलिन मुख) फत्तू काका, तुमने मुझे नाहक छुड़ाया, वहीं क्यों न घुलने दिया। अगर मुझे मालूम होता कि घर की यह दसा है तो उधर से देश-विदेश की राह लेता, यहां अपना काला मुंह दिखाने न आता। मैं इस औरत को पतिव्रता समझता था। देवी समझकर उसकी पूजा करता था। पर यह नहीं जानता था कि वह मेरे पीठ फेरते ही यों पुरखों के माथे पर कलंक लगायेगी। हाय?
सलोनी– बेटा, वह सचमुच देवी थी। ऐसी पतिवरता नारी मैंने नहीं देखी। तुम उस पर संदेह करके उस पर बड़ा अन्याय कर रहे हो। मैं रोज रात को उसके पास सोती थी। उसकी आँखें रात-की-रात खुली रहती थीं।
करवटें बदला करती। मेरे बहुत कहने-सुनने पर कभी-कभी भोजन बनाती थी, पर दो-चार कौर भी न खाया जाता। मुंह जूठा करके उठ जाती। रात-दिन तुम्हारी ही चर्चा, तुम्हारी ही बात किया करती थी। शोक और दु:ख में जीवन से निराश होकर चाहे प्राण दे दिये हों पर वह कुल को कलंक नहीं लगा सकती। बरम्हा भी आकर उस पर यह दोख लगायें तो मुझे उन पर विश्वास न आयेगा।
फत्तू– काकी, तुम तो उसके साथ ही सोती बैठती थी, तुम जितना जानती हो उतना मैं कहां से जानूंगा, लेकिन इस गांव में सत्तर बरस की उमिर गुजर गयी, सैकड़ों बहुएं आयीं पर किसी में वह बात नहीं पायी जो इसमें है। न ताकना, न झांकना, सिर झुकाये अपनी राह जाना, अपनी राह आना। सचमुच ही देवी थी।
हलधर– काका, किसी तरह मन को समझाने तो दो। जब अंगूठी पानी में गिर गयी तो यह सोच कर क्यों न मन को धीरज दूं कि नग कच्चा था। हाय, अब इस घर में पांव नहीं रखा जाता; ऐसा जान पड़ता है कि घर की जान निकल गयी।
सलोनी– जाते-जाते घर को लीप गयी है। देखो अनाज मटकों में रख कर इनका मुंह मिट्टी से बंद कर दिया है। यह घी की हांडी है, लबालब भरी हुई बेचारी ने संच कर रखा था। क्या कुल्टाएँ गिरस्ती की ओर इतना ध्यान देती हैं? एक तिनका भी तो इधर-उधर पड़ा नहीं दिखायी देता।
हलधर– (रोकर) काकी, मेरे लिए अब संसार सुना हो गया। वह गंगा की गोद में चली गयी। अब फिर उसकी मोहिनी मूरत देखने को न मिलेगी इतनी जल्द छीन लेना था तो दिया ही क्यों था।
फत्तू– बेटा, अब तो जो कुछ होना था, वह हो चुका, अब सबर करो और अल्लाताला से दुआ करो कि उसी देवी को निजात दे। रोने-धोने से क्या होगा। वह तुम्हारे लिए थी ही नहीं। उसे भगवान ने रानी बनने के लिए बनाया था। कोई ऐसी ही बात हो गयी थी कि वह कुछ दिनों के लिए इस दुनिया में आयी थी। वह मीयाद पूरी करके चली गयी। यही समझ कर सबर करो।
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