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संग्राम (नाटक)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :283
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8620
आईएसबीएन :978-1-61301-124

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मुंशी प्रेमचन्द्र द्वारा आज की सामाजिक कुरीतियों पर एक करारी चोट

तीसरा अंक

पहला दृश्य

(स्थान– कंचनसिंह का कमरा, समय-दोपहर, खस की टट्टी लगी हुई है, कंचन सिंह सीतापाटी बिछाकर लेटे हुए है, पंखा चल रहा है।)

कंचन– (आप-ही-आप) भाई साहब में तो यह आदत कभी नहीं थी। इसमें अब लेश-मात्र भी संदेह नहीं है कि वह कोई अत्यंत रूपवती स्त्री है। मैंने उसे छज्जे पर से झांकते देखा था, भाई साहब आड़ में छिप गये थे। अगर कुछ रहस्य की बात न होती तो वह कदापि न छिपते, बल्कि मुझसे पूछते, कहां जा रहे हो। मेरा माथा उसी वक्त ठनका था जब मैंने उन्हें नित्य प्रति बिना किसी कोचवान के अपने हाथों टमटम हाँकते सैर करते जाते देखा। उनकी इस भांति घूमने की आदत न थी। आजकल न कभी क्लब जाते हैं न और किसी से मिलते-जुलते हैं। पन्नों से भी रुचि नहीं जान पड़ती। सप्ताह में एक-न-एक लेख अवश्य लिख लेते थे, पर इधर महीनों से एक पंक्ति भी कहीं नहीं लिखी। यह बुरा हुआ। जिस प्रकार बंधा हुआ पानी खुलता है तो बड़े वेग से बहने लगता है अथवा रूका वायु चलता है तो बहुत प्रचंड हो जाता है, उसी प्रकार संयमी पुरुष जब विचलित होता है, वह अविचार की चरम सीमा तक चला जाता है, न किसी की सुनता है न किसी के रोके रूकता है, न परिणाम सोचता है। उसकी विवेक और बुद्धि पर परदा-सा पड़ जाता है। कदाचित भाई साहब को मालूम हो गया है कि मैंने उन्हें वहाँ देख लिया। इसलिए वह मुझसे माल खरीदने के लिए पंजाब जाने को कहते हैं। मुझे कुछ दिनो के लिए हटा देना चाहते है यही बात है, नहीं तो यह माल-वाल की इतनी चिंता कभी न किया करते थे। मुझे तो अब कुशल नहीं दीखती। भाभी को कहीं खबर मिल गयी तो वह प्राण ही दें देंगी। बड़े आश्चर्य की बात है कि ऐसे विद्वान गम्भीर पुरुष भी इस मायाजाल में फंस जाते हैं। अगर मैंने अपनी आँखों न देखा होता तो भाई साहब के संबंध में कभी इस दुष्कल्पना का विश्वास न आता।

(ज्ञानी का प्रवेश)

ज्ञानी– बाबूजी, आज सोये नहीं?

कंचन– नहीं कुछ हिसाब-किताब देख रहा था। भाई साब ने लागान मुआफ कर दिया होता तो अबकी तो अबकी मैं ठाकुरद्वारे में जरूर हाथ लगा देता असामियों से कुछ रुपये वसूल होते, लेकिन उन पर दावा ही न करने दिया।

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