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नाटक-एकाँकी >> संग्राम (नाटक)

संग्राम (नाटक)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :283
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8620
आईएसबीएन :978-1-61301-124

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मुंशी प्रेमचन्द्र द्वारा आज की सामाजिक कुरीतियों पर एक करारी चोट

दूसरा दृश्य

(सबलसिंह अपने सजे हुए दीवानखाने में उदास बैठे हैं। हाथ में एक समाचारपत्र है, पर उनकी आँखें दरवाजे के सामने बाग की तरफ लगी हुई हैं।)

सबलसिंह– (आप ही आप) देहात में पंचायतों का होना जरूरी है। सरकारी अदालतों का खर्च इतना बढ़ गया है कि कोई गरीब आदमी वहां न्याय के लिए जा ही नहीं सकता। जरा-सी भी कोई बात कहनी हो तो स्टाफ के बगैर काम नहीं चल सकता।...उसका कितना सुडौल शरीर है, ऐसा जान पड़ता है कि एक-एक अंग सांचे में ढला है। रंग कितना प्यारा है, न इतना गोरा कि आँखों को बुरा लगे, न इतना सांवला...होगा मुझे इससे क्या क्या मतलब है। वह पराई स्त्री है, मुझे उसके रूप-लावण्य से क्या वास्ता। संसार में एक-से एक सुन्दर स्त्रिया है, कुछ यह एक थोड़ी है? ज्ञानी उससे किसी बात में कम नहीं, कितनी सरल-हृदय, कितनी मधुरभाषिणी रमणी है। अगर मेरा जरा-सा इशारा हो तो आग में कूद पड़े। मुझ पर उसको कितनी भक्ति, कितना प्रेम है। कभी सिर में दर्द भी होता है तो बावली हो जाती है। अब उधर मन को जाने ही न दूंगा।

(कुर्सी से उठकर अलमारी से एक ग्रंथ निकालते हैं, उसके दो-चार पन्ने इधर-उधर से उलटकर पुस्तक को मेज पर रख देते हैं और फिर कुर्सी पर जा बैठते हैं। अचलसिंह हाथ में एक बन्दूक लिये दौड़ा आता है।)

अचल– दादा जी, शाम हो गई। आज घूमने न चलिएगा?

सबल– नहीं बेटा? आज तो जाने को जी नहीं चाहता। तुम गाड़ी जुतवा लो। यह बन्दूक कहां पायी?

अचल– इनाम में। मैं दौड़ने में सबसे अव्वल निकला। मेरे साथ तोई २५ लड़के दौड़े थे। कोई कहता था, मैं बाजी मारूंगा; कोई अपनी डींग मार रहा था। जब दौड़ हुई तो मैं सबसे आगे निकला, कोई मेरे गर्द को भी न पहुंचा, अपना-सा मुंह लेकर रह गये। इस बन्दूक से चाहू तो चिड़िया मार लूं।

सबल– मगर चिड़ियों का शिकार न खेलना।

अचल– जी नहीं, यों ही बात कहता था। बेचारी चिड़ियों ने मेरा क्या बिगाड़ा है कि उनकी जान लेता फिरूं। मगर जो चिड़ियां दूसरी चिड़ियों का शिकार करती है उनके मारने में तो कोई पाप नहीं है।

सबल– (असमंजस में पड़कर) मेरी समझ में तो तुम्हें शिकारी चिड़ियों को भी न मारना चाहिए। चिड़ियों में कर्म-अकर्म का ज्ञान नहीं होता। वह जो कुछ करती है केवल स्वभाव-वश करती हैं, इसलिए वह दण्ड की भागी नहीं हो सकती।

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