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सप्त सरोज (कहानी संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :140
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8624
आईएसबीएन :978-1-61301-181

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पण्डित देवदत्त मानो मूर्च्छित-से हो गए। जिस शान्ति-भंग का उन्हें भय था, उसने अत्यन्त भयंकर रूप धारण करके घर में प्रवेश किया। वह कुछ भी न बोल सके। इस समय उनके अधिक बोलने से बात बढ़ जाने का भय था। वह बाहर चले आए और सोचने लगे कि मैंने गोदावरी के साथ कौन-सा अनुचित व्यवहार किया है। उनके ध्यान में गया कि गोदावरी के हाथ से निकलकर घर का प्रबन्ध कैसे हो सकेगा! इस थोड़ी-सी आमदानी में वह न जाने किस प्रकार काम चलाती थी। क्या-क्या उपाय वह करती थी? अब न जाने नारायण कैसे पार लगावेंगे? उसे मनाना पड़ेगा, और हो ही क्या सकता है? गोमती भला क्या कर सकती है, सारा बोझ मेरे सिर पड़ेगा। मानेगी तो, पर मुश्किल से।

परन्तु पण्डितजी की ये शुभ कामनाएँ निष्फल हुईं। सन्दूक की वह कुंजी विषैली नागिन की तरह वहीं आँगन में ज्यों की त्यों तीन दिन तक पड़ी रही। किसी को उसके निकट जाने का साहस न हुआ। चौथे दिन तब पण्डितजी ने मानो जान पर खेल कर उसी कुंजी को उठा लिया। उस समय उन्हें ऐसा मालूम हुआ, मानो किसी ने उनके सिर पर पहाड़ उठाकर रख दिया। आलसी आदमियों को अपने नियमित मार्ग से तिल भर हटना बड़ा कठिन मालूम होता है।

यद्यपि पण्डितजी जानते थे कि मैं अपने दफ्तर के कारण इस कार्य को सँभालने में असमर्थ हूँ, तथापि उनसे इतनी ढिठाई न हो सकी कि वह कुंजी गोमती को दें। पर यह केवल दिखावा ही भर था। कुंजी उन्हीं के पास रहती थी, काम सब गोमती को करना पड़ता था। इस प्रकार गृहस्थी के शासन का अन्तिम साधन भी गोदावरी के हाथ से निकल गया। गृहिणी के नाम के साथ जो मर्यादा और सम्मान था, वह भी गोदावरी के पास से कुंजी के साथ चला गया। देखते-देखते घर की महरी और पड़ोस की स्त्रियों के बर्ताव में भी अन्तर पड़ गया। गोदावरी अब पदच्युत रानी की तरह थी। उसका अधिकार अब केवल दूसरों की सहानुभूति पर ही रह गया था।

गृहस्थी के काम-काज में परिवर्तन होते ही गोदावरी के स्वभाव में भी शोकजनक परिवर्तन हो गया! ईर्ष्या मन में रहने वाली वस्तु नहीं। आठों पहर पास-पड़ोस के घरों में यही चर्चा होने लगी। देखो, दुनिया कैसे मतलब की है। बेचारी ने लड़-झगड़कर ब्याह कराया, जान-बूझकर अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारी। यहाँ तक कि अपने गहने-कपड़े तक उतार दिए। पर अब रोते-रोते आँचल भीगता है। सौत तो सौत ही है, पति ने भी उसे आँखों से गिरा दिया। बस, अब दासी की तरह घर में पड़ी-पड़ी पेट जिलाया करे। यह जीना भी कोई जीना है।

ये सहानुभूतिपूर्ण बातें सुनकर गोदावरी की ईर्ष्याग्नि और भी प्रबल होती थी। उसे इतना न सूझता था कि वह मौखिक संवेदनाएँ अधिकांश में उस मनोविकार से पैदा हुई हैं, जिससे मनुष्य को हानि और दु:ख पर हँसने में विशेष आनन्द आता है।

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