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सप्त सरोज (कहानी संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :140
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8624
आईएसबीएन :978-1-61301-181

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ऐसी घटनाएँ गोदावरी की ईर्ष्याग्नि को और भी प्रज्जवलित कर देती थीं! जब तक उसे विश्वास था कि पण्डितजी स्वभाव से ही रुखे हैं, तब तक उसे संतोष था। परन्तु अब उनकी ये नई-नई तरंगें देखकर उसे मालूम हुआ कि जिस प्रीति को मैं सैकड़ों यत्न करके भी न पा सकी, उसे इस रमणी ने केवल यौवन से जीत लिया। उसे अब निश्चय हुआ कि मैं जिसे सच्चा समझ रही थी, वह वास्तव में कपटपूर्ण था। वह निरा स्वार्थ था।

दैवयोग से इन्हीं दिनों गोमती बीमार पड़ी। उसे उठने-बैठने की भी शक्ति न रही। गोदावरी रसोई बनाने लगी, पर उसे इसका निश्चय नहीं था कि गोमती वास्तव में बीमार है। उसे यही ख्याल था कि मुझसे खाना पकवाने के लिए ही दोनों प्राणियों ने यह स्वाँग रचा है। पड़ोस की स्त्रियों में वह कहती की लौंडी बनने में इतनी ही कसर थी, वह भी पूरी हो गई।

पण्डितजी को आजकल खाना खाते वक्त भागा-भाग-सी पड़ जाती है। वे न जाने क्यों गोदावरी से एकान्त में बातचीत करते डरते हैं। न मालूम कैसी कठोर और हृदयविदारक बातें वह सुनाने लगे। इसलिए खाना खाते वक्त वे डरते रहते थे कि कहीं उस भयंकर समय का आगमन न हो जाए। गोदावरी अपने तीव्र नेत्रों से उनके मन का यह भाव ताड़ जाती थी, पर मन ही मन में ऐंठकर रह जाती थी।

एक दिन उससे न रहा गया। वह बोली– क्या मुझसे बोलने की भी मनाही कर दी गई है? देखती हूँ, कहीं तो रात-रात भर बातों का तार नहीं टूटता, पर मेरे सामने मुँह न खोलने की कसम-सी खाई है। घर का रंग-ढंग देखते हो न? अब तो सब काम तुम्हारे इच्छानुसार चल रहा है न?

पण्डितजी ने सिर नीचा करते हुए उत्तर दिया– उहँ! जैसे चलता है, वैसे चलता है। उस फिक्र से क्या अपनी जान दे दूँ? जब तुम यह चाहती हो कि घर मिट्टी में मिल जाए, तब फिर मेरा क्या वश है?

इस पर गोदावरी ने बड़े कठोर वचन कहे। बात बढ़ गई। पण्डितजी चौके पर से उठ आए। गोदावरी ने कसम दिलाकर उन्हें बिठाना चाहा, पर वे वहाँ क्षण भर भी न रुके! तब उसने भी रसोई उठा दी। सारे घर को उपवास करना पड़ा।

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