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सप्त सरोज (कहानी संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :140
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8624
आईएसबीएन :978-1-61301-181

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कुछ इसी तरह से कटु वाक्य एक बार गोदावरी ने भी कहे थे। आज उसकी बारी सुनने की थी।

आज गोदावरी गंगा से गले मिलने आई है। तीन साल हुए वह वर और वधू को लेकर गंगाजी को पुष्प और दूध चढ़ाने गयी थी। आज वह अपने प्राण समर्पण करने आयी है। आज वह गंगाजी की आनन्दमयी लहरों में विश्राम करना चाहती है।

गोदावरी को अब उस घर में एक क्षण रहना भी दुस्सह हो गया था। जिस घर में रानी बनकर रही, उसी में चेरी बनकर रहना उस जैसी सगर्वा स्त्री के लिए असम्भव था।

अब इस घर से गोदावरी का स्नेह उस पुरानी रस्सी की तरह था, जो बराबर गाँठ देने पर भी कहीं न कहीं से टूट ही जाती है। उसे गंगाजी की शरण लेने के सिवाय और कोई उपाय न सूझता था।

कई दिन हुए उसके मुँह से बार-बार जान दे देने की धमकी सुन, पण्डितजी खिझलाकर बोल उठे थे– तुम किसी तरह मर भी तो जातीं। गोदावरी उन विष भरे शब्दों को अब तक न भूली थी। चुभने वाली बातें उसको भी न भूलती थीं। आज गोमती ने भी वही बातें कही थीं, तथापि गोदावरी को अपनी बातें तो भूल-सी गई थीं, केवल गोमती और पण्डितजी के वाक्य ही उसके कानों में गूँज रहे थे। पण्डितजी ने उसे डाँटा तक नहीं। मुझ पर ऐसा घोर अन्याय, और वे मुँह तक न खोलें!

आज सब लोगों के सो जाने पर गोदावरी घर से बाहर निकली। आकाश में काली घटाएँ छाई थीं। वर्षा की झड़ी लग रही थी। उधर उसके नेत्रों से भी आँसुओं की धारा बह रही थी! प्रेम का बन्धन कितना कोमल है और दृढ़ भी कितना! कोमल है अपमान के सामने, दृढ़ है वियोग के सामने। गोदावरी चौखट पर खड़ी-खड़ी घण्टों रोती रही। कितनी ही पिछली बातें उसे याद आती थीं। हा! कभी यहाँ उसके लिए प्रेम भी था, मान भी था, जीवन का सुख भी था। शीघ्र ही पण्डित जी के वे कठोर शब्द भी उसे याद आ गए। आँखों से फिर पानी की धारा बहने लगी। गोदावरी घर से चल खड़ी हुई।

इस समय यदि पण्डित देवदत्त नंगे सिर, नंगे पाँव पानी में भीगते, दौड़ते आते और गोदावरी के कम्पित हाथों को पकड़कर अपने धड़कते हुए हृदय से उसे लगाकर कहते ‘‘प्रिये’’! इससे अधिक और उनके मुँह से कुछ भी न निकलता, तो भी क्या गोदावरी अपने विचारों पर स्थिर रह सकती?

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