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सप्त सरोज (कहानी संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :140
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8624
आईएसबीएन :978-1-61301-181

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सरदार साहब के पास मोटरकार का तो कहना ही क्या, कोई फिटन भी न थी। वे अपने इक्के से ही प्रसन्न थे, जिसे उनके नौकर-चाकर अपनी भाषा में उड़नखटोला कहते थे। शहर के लोग उसे इतना आदर सूचक नाम न देकर छकड़ा कहना ही उचित समझते थे। इसी तरह सरदार साहब अन्य व्यवहारों में भी बड़े मितव्ययी थे। उनके दो भाई इलाहाबाद में पढ़ते थे। विधवा माता बनारस में रहती थी। एक विधवा बहिन भी थी उन्हीं पर अवलम्बित थी। इनके सिवा कई गरीब लड़कों को छात्रवृत्तियाँ भी देते थे। इन्हीं कारणों से वे सदा खाली हाथ रहते। यहाँ तक कि उनके पास कपड़ों पर भी इस आर्थिक दशा के चिन्ह दिखाई देते थे। लेकिन यह सब कष्ट सहकर भी वे लोभ को अपने पास फटकने न दे देते थे। जिन लोगों पर उनका स्नेह था, वे उनकी सज्जनता को सराहते थे और उन्हें देवता समझते थे। उनकी सज्जना से उन्हें कोई हानि न थी। लेकिन जिन लोगों से उनके व्यावसायिक सम्बन्ध थे, वे उनके सद्भावों के ग्राहक न थे, क्योंकि उन्हें हानि होती थी। यहाँ तक कि उन्हें अपनी सहधर्मिणी से भी कभी-कभी अप्रिय बातें सुननी पड़ती थीं।

एक दिन वे दफ्तर से आये, तो उनकी पत्नी ने स्नेहपूर्ण ढंग से कहा– तुम्हारी यह सज्जनता किस काम की, जब सारा संसार तुमको बुरा कह रहा है?!

सरदार साहब ने दृढ़ता से जवाब दिया– संसार जो चाहे कहे, परमात्मा तो देखता है।

रामा ने यह जबाब पहले ही सोच लिया था। वह बोली– मैं तुमसे विवाद तो करती नहीं, मगर जरा अपने दिल में विचार करके देखो कि तुम्हारी इस सचाई का दूसरों पर क्या असर पड़ता है?

तुम तो अच्छा वेतन पाते हो। तुम अगर हाथ न बढ़ाओ, तो तुम्हारा निर्वाह हो सकता है। रूखी रोटियाँ मिल ही जायँगी। मगर ये दस-दस पाँच-पाँच रुपये के चपरासी, मुहर्रिर दफ्तरी बेचारे कैसे गुजर करें? उनके भी बाल-बच्चे हैं। उनके भी कुटुम्ब-परिवार है। शादी गमी, तिथि-त्योहार यह सब उनके साथ लगे हुए हैं। भलमनसी का भेष बनाए बिना काम नहीं चलता। बताओ, उनका गुजर कैसे हो? अभी रामदीन चपरासी की घरवाली आयी थी। रोते-रोते आँचल भीगता था। लड़की सयानी हो गई है। अब उसका ब्याह करना पड़ेगा। ब्राह्मण की जाति, हजारों का खर्च। बताओ, उसके आँसू किसके सिर पर पड़ेंगे।

ये सब बातें सच थीं। इनसे सरदार साहब को इनकार नहीं हो सकता था। उन्होंने स्वयं इस विषय में बहुत कुछ विचार किया था। यही कारण था कि वह अपने मातहतों के साथ बड़ी नरमी का व्यवहार करते थे। लेकिन सरलता और शालीनता का आत्मिक गौरव चाहे जो हो, उनका आर्थिक मोल बहुत कम है। वे बोले– तुम्हारी बातें सब यथार्थ हैं, किन्तु मैं विवश हूँ। अपने नियमों को कैसे तोड़ूँ? यदि मेरा वश चले, तो मैं उन लोगों का वेतन बढ़ा दूँ। लेकिन यह नहीं हो सकता कि मैं खुद लूट मचाऊँ और उन्हें लूटने दूँ।

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