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सप्त सरोज (कहानी संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :140
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8624
आईएसबीएन :978-1-61301-181

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एक दिन चौथी खेप में साहु जी ने दूना बोझ लादा। दिन भर का थका जानवर, पैर न उठते थे। उस पर साहु जी कोड़े फटकारने लगे। बस फिर क्या था, बैल कलेजा तोड़कर चला। कुछ दूर दौड़ा और फिर बस ,चाहा कि जरा दम ले लूँ, पर साहुजी को जल्द घर पहुँचने की फिक्र थी। अतएव उन्होंने कई कोड़े बड़ी निर्दयता से फटकारे। बैल ने एक बार फिर जोर लगाया। पर अबकी बार शक्ति ने जवाब दे दिया। वह धरती पर गिर पड़ा और ऐसा गिरा कि फिर न उठा। साहु जी ने बहुत पीटा, टाँग पकड़कर खींचा, नथनों में लकड़ी ठूँस दी! पर कहीं मृतक भी उठ सकता है? तब साहु जी को कुछ शंका हुई। उन्होंने बैल को गौर से देखा, खोलकर अलग किया, और सोचने लगे कि गाड़ी कैसे घर पहुँचे। वे बहुत चीखे-चिल्लाए, पर देहात का रास्ता बच्चों की आँख की तरह साँझ होते ही बंद हो जाता है,कोई नजर न आया। आस-पास कोई गाँव भी न था। मारे क्रोध के उन्होंने मरे हुए बैल पर और दुर्रे लगाये और कोसने लगे, अभाग! तुझे मरना ही था, तो घर पहुँचकर मरता। ससुरा बीच रास्ते ही में मर रहा! अब गाड़ी कौन खींचे? इस तरह साहुजी खूब जले-भुने। कई बोरे गुड़ और कई पीपे घी उन्होंने बेचा था, दो-ढाई सौ रुपये कमर में बंधे थे। इसके सिवा गाड़ी पर कई बोरे नमक थे, अतएव छोड़ कर जा भी न सकते थे। लाचार बेचारे गाड़ी पर ही लेट गये। वहीं रतजगा करने की ठान ली। चिलम पी, गाया, फिर हुक्का पिया। इस तरह साहु जी आधी रात तक नींद को बहलाते रहे। अपनी जान में तो वह जागते ही रहे, पर पौ फटते ही जो नींद टूटी और कमर पर हाथ रखा, तो थैली गायब! घबरा कर इधर-उधर देखा तो कई कनस्तर तेल भी नदारत! अफसोस में बेचारा सिर पीटने लगा और पछाड़ खाने लगा। प्रात:काल रोते-बिलखते घर पहुँचा। सहुआइन ने जब यह बुरी सुनावनी सुनी, तब पहले तो रोयी, फिर अलगू चौधरी को गालियाँ देने लगी, निगोड़े ने ऐसा कुलच्छना बैल दिया कि जन्म भर की कमाई लुट गई।

इस घटना को हुए कई वर्ष बीत गए। अलगू जब अपने बैल के दाम माँगते, तब साहु और सहुआइन दोनों ही झल्लाए कुत्तों की तरह चढ़ बैठते और अंड-बंड बकने लगते– वाह! यहाँ तो सारे जन्म की कमाई लुट गई, सत्यानाश हो गया, इन्हें दामों की पड़ी है। मुर्दा बैल दिया था, उस पर दाम माँगने चले हैं! आँखों में धूल झोंक दी, सत्यानाशी बैल गले बाँध दिया, हमें निरा पोंगा ही समझ लिया। हम भी बनिये के बच्चे हैं, ऐसे बुद्धू कहीं और होंगे। पहले जाकर किसी गड़हे में मुँह धो आओ, तब दाम लेना। जी न मानता हो तो हमारा बैल खोल ले जाओ। महीना भर के बदले दो महीना जोत लो। रुपया क्या लोगे?

चौधरी के अशुभचिंतकों की कमी न थी। ऐसे अवसरों पर वे भी एकत्र हो जाते और साहु जी के बर्राने की पुष्टि करते। इस तरह फटकारें सुनकर बेचारे चौधरी अपना-सा मुँह लेकर लौट आते, परन्तु डेढ़ सौ रुपये से इस तरह हाथ धो लेना आसान न था। एक बार वह भी गरम पड़े। साहु जी बिगड़ कर लाठी ढूँढ़ने घर चले गए। अब सहुआइन जी ने मैदान लिया। प्रश्नोत्तर होते-होते हाथापाई की नौबत आ पहुँची। सहुआइन ने घर में घुस कर किवाड़ बन्द कर लिए। शोरगुल सुनकर गाँव के भलेमानुष जमा हो गए। उन्होंने दोनों को समझाया। साहुजी को दिलासा देकर घर से निकाला। वे परामर्श देने लगे कि इस तरह सिरफुड़ौवल से काम न चलेगा। पंचायत करा लो। जो कुछ तै हो जाए, उसे स्वीकार कर लो। साहुजी राजी हो गए। अलगू ने भी हामी भर ली।

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