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सप्त सरोज (कहानी संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :140
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8624
आईएसबीएन :978-1-61301-181

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दारोगाजी बड़े चतुर पुरुष थे। मुख्तार साहब की बातों से उन्होंने समझा था कि शर्माजी का स्वभाव भी अन्य जमींदारों के सदृश है। इसलिए वह बेखटके थे। पर इस समय उन्हें अपनी भूल ज्ञात हुई। शर्माजी के तेवर देखे, नेत्रों से क्रोधाग्नि की ज्वाला निकल रही थी शर्माजी की शक्तिशालिता से भलीभाँति परिचित थे। समीप आकर बोले– आपके इस मुख्तार ने मुझे बड़ा धोखा दिया, वरना मैं हलफ से कहता हूँ कि यहाँ आग न लगती। आप मेरे मित्र बाबू कोकिला सिंह के मित्र हैं और नाते से मैं आपको अपना मुरब्बी समझता हूँ, पर इस मरदूद बदमाश ने मुझे बड़ा चकमा दिया। मैं भी ऐसा अहमक था कि इसके चक्कर में आ गया। मैं बहुत नादिम हूँ कि हिमाकत के बाइस जनाब को इतनी तकलीफ हुई। मैं आपके मुआफी का सायल हूँ। मेरी दोस्ताना इल्तमाश यह है कि जितनी जल्दी मुमकिन हो, इस शक्स को बरतरफ कर दीजिए। यह आपकी रियासत को तबाह किए डालता है। अब मुझे भी इजाजत हो कि मनहूस कदम यहाँ से ले जाऊँ। मैं हलफ से कहता हूँ कि आपको मुँह दिखाते शर्म आती है।

यहाँ तो यह घटना हो रही थी, उधर बाबूलाल अपने चौपाल में बैठे हुए इसके सम्बन्ध में अपने कई आदमियों से बातचीत कर रहे थे। शिवदीन ने कहा– भैया, आप जाके दारोगाजी को काहे नाहीं समझावत हौ। राम-राम! ऐसन अँधेर!

बाबूलाल– भाई, मैं दूसरे के बीच बोलनेवाला कौन? शर्माजी तो वहीं हैं, वह आप ही बुद्धिमान हैं, जो उचित होगा करेंगे। यह आज कोई नई बात थोड़े ही है। देखते तो हो कि आये दिन एक न एक उपद्रव मचा ही रहता है। मुख्तार साहब का इसमें भला होता है। शर्माजी से मैं इस विषय में इसलिए कुछ नहीं कहता कि शायद वे समझें कि मैं ईर्ष्यावश शिकायत कर रहा हूँ।

रामदास ने कहा– शर्माजी कोठा पर हैं और नीचू बेचारन पर मार परत है। देखा नहीं जात है। जिससे मुराद पाय जात हैं, उनका छोड़े देत हैं। मोका तो जान परत है कि ई तहकीकात सहकीकात बस रुपैयन के खातिर कीन जात है।

बाबूलाल– और काहे के लिए की जाती है! दारोगाजी तो ऐसे ही शिकार ढूँढ़ा। करते हैं, लेकिन देख लेना, शर्माजी अबकी मुख्तार साहब की जरूर खबर लेंगे। वह ऐसे आदमी नहीं हैं कि यह अंधेर अपनी आँखों से देखें और मौन धारण कर लें। हाँ, यह तो बताओ, अबकी कितनी ऊख बोई है?

रामदास– ऊख बोये ढेर रहे, मुदा दुश्मन के मारे बचे पावै। तू मानत नाहीं हौ भैया, पर आँखन देखी बात है कि कराह क कराह रस जर गवा और छटाकौ भर माल न परा। न जानी अस कौन मन्तर मार देत है।

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