कहानी संग्रह >> सप्त सरोज (कहानी संग्रह) सप्त सरोज (कहानी संग्रह)प्रेमचन्द
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मुंशी प्रेमचन्द की सात प्रसिद्ध कहानियाँ
जिस समय लालबिहारी सिंह सिर झुकाये आनन्दी के द्वार पर खड़ा था, उसी समय श्रीकंठ सिंह भी आँखें लाल किए बाहर से आये। भाई को खड़ा देखा, तो घृणा से आँखें फेर लीं, और कतराकर निकल गए, मानों उसकी परछाही से दूर भागते हैं।
आनन्दी ने लालबिहारी की शिकायत तो की थी, लेकिन अब मन में पछता रही थी! वह स्वभाव से ही दयावती थी। उसे इसका तनिक भी ध्यान न था कि बात इतनी बढ़ जायगी। वह मन में अपने पति पर झुँझला रही थी कि यह इतने गरम क्यों हो जाते हैं। उस पर यह भय भी लगा हुआ था कि कहीं मुझसे इलाहाबाद चलने को कहें, तो कैसे क्या करुँगी। इस बीच में जब उसने लालबिहारी को दरवाजे पर खड़े यह कहते सुना कि अब मैं जाता हूँ; मुझसे जो कुछ अपराध हुआ, क्षमा करना, तो उसका रहा-सहा क्रोध भी पानी-पानी हो गया। वह रोने लगी। मन का मैल धोने के लिए नयन-जल से उपयुक्त और कोई वस्तु नहीं है।
श्रीकंठ को देखकर आनन्दी ने कहा— लाला बाहर खड़े बहुत रो रहे हैं।
श्रीकंठ– तो मैं क्या करूँ?
आनन्दी– भीतर बुला लो! मेरी जीभ में आग लगे। मैंने कहाँ से यह झगड़ा उठाया।
श्रीकंठ– मैं न बुलाऊँगा।
आनन्दी– पछताओगे। उन्हें बहुत ग्लानि हो गयी है। ऐसा न हो, कहीं चल दें।
श्रीकंठ न उठे। इतने में लालबिहारी ने फिर कहा— भाभी, भैया से मेरा प्रणाम कह दो। वह मेरा मुँह नहीं देखना चाहते, मैं भी इसलिए अपना मुँह उन्हें न दिखाऊँगा।
लालबिहारी इतना कह कर लौट पड़ा, और शीघ्रता से दरवाजे की ओर बढ़ा। अन्त में आनन्दी कमरे से निकली और उसका हाथ पकड़ लिया। लालबिहारी ने पीछे फिर कर देखा और आँखों में आँसू भर बोला— मुझे जाने दो।
आनन्दी— कहाँ जाते हो?
लालबिहारी— जहाँ कोई मेरा मुँह न देखे।
आनन्दी– मैं न जाने दूँगी।
लालबिहारी– मैं तुम लोगों के साथ रहने योग्य नहीं हूँ।
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