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सामाजिक कहानियाँ >> सप्त सुमन (कहानी-संग्रह)

सप्त सुमन (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :164
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8626
आईएसबीएन :978-1-61301-184

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मुंशी प्रेमचन्द की सात प्रसिद्ध सामाजिक कहानियाँ


ज्ञानप्रकाश ने उसके पैरों को स्पर्श किया। दोनों भाई घर आये। अंधकार छाया हुआ था। घर की यह दशा देखकर ज्ञानप्रकाश, जो अब तक अपने कंठ के आवेग को रोके हुए था, रो पड़ा। सत्यप्रकाश ने लालटेन जलायी। घर क्या था, भूतों का डेरा था। सत्यप्रकाश ने जल्दी से एक कुरता गले में डाल लिया। ज्ञानप्रकाश भाई का जर्जर शरीर, पीला मुख, बुझी हुई आँखें देखता और रोता था!

सत्यप्रकाश ने कहा– मैं आजकल बीमार हूँ।

ज्ञानप्रकाश– यह तो देख ही रहा हूँ।

सत्यप्रकाश– तुमने अपने आने की सूचना भी न दी, मकान का पता कैसे चला?

ज्ञानप्रकाश– सूचना तो दी थी, आपको पत्र न मिला होगा।

सत्यप्रकाश– अच्छा, हाँ, दी होगी, पत्र दूकान के पते से डाला गया होगा।

मैं इधर कई दिनों से दूकान नहीं गया। घर पर सब कुशल है?

ज्ञानप्रकाश– माताजी का देहांत हो गया।

सत्यप्रकाश– अरे! क्या बीमार थीं?

ज्ञानप्रकाश– जी नहीं। मालूम नहीं, क्या खा लिया। इधर उन्हें उन्माद सा हो गया था। पिताजी ने कुछ कटु वचन कहे थे, शायद इसी पर कुछ खा लिया।

सत्यप्रकाश– पिताजी तो कुशल से हैं?

ज्ञानप्रकाश– हाँ, अभी मरे नहीं हैं।

सत्यप्रकाश– अरे! क्या बहुत बीमार हैं?

ज्ञानप्रकाश– माता ने विष खा लिया, तो उनका मुँह खोलकर दवा पिला रहे थे। माताजी ने ज़ोर से उनकी उँगलियाँ काट लीं। वही विष उनके शरीर में पहुँच गया। तब से सारा शरीर सूज आया है! अस्पताल में पड़े हुए हैं, किसी को देखते हैं, तो काटने दौड़ते हैं। बचने की आशा नहीं है।

सत्यप्रकाश– तब तो घर ही चौपट हो गया?

ज्ञानप्रकाश– ऐसे घर को अब से बहुत पहले चौपट हो जाना चाहिए था।

तीसरे दिन दोनों भाई प्रातःकाल कलकत्ते से बिदा होकर चल दिए।

।। समाप्त ।।

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