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सेवासदन (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :535
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8632
आईएसबीएन :978-1-61301-185

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यह उपन्यास घनघोर दानवता के बीच कहीं मानवता का अनुसंधान करता है


गंगाजली चतुर स्त्री थी। उन्हें समझाया करती थी जरा हाथ रोककर खर्च करो। जीवन में यदि और कुछ नहीं करना है तो लड़कियों का विवाह तो करना ही पड़ेगा, उस समय किसके सामने हाथ फैलाते फिरोगे? अभी तो उन्हें मखमली जूतियाँ पहनाते हो, कुछ इसकी भी चिंता है कि आगे क्या होगा? दरोगाजी इन बातों को हँसी में उड़ा देते, कहते, जैसे और सब काम चलते हैं, वैसे ही यह काम भी हो जाएगा। कभी झुंझलाकर कहते ऐसी बात करके मेरे ऊपर चिंता का बोझ मत डालो।

इस प्रकार दिन बीतते चले जाते थे। दोनों लड़कियां कमल के समान खिलती जाती थीं। बड़ी लड़की सुमन सुंदर, चंचल और अभिमानी थी, छोटी लड़की शान्ता भोली, गंभीर, सुशील थी। सुमन दूसरों से बढ़कर रहना चाहती थी। यदि बाजार से दोनों बहनों के लिए एक ही प्रकार की साड़ियाँ आतीं, तो सुमन मुंह फुला लेती थी। शान्ता को जो कुछ मिल जाता, उसी में प्रसन्न रहती।

गंगाजली पुराने विचार के अनुसार लड़कियों के ऋण से शीघ्र मुक्त होना चाहती थी। पर दारोगाजी कहते, यह अभी विवाह योग्य नहीं है। शास्त्रों में लिखा है कन्या का विवाह सोलह वर्ष की आयु से पहले करना पाप है। वह इस प्रकार मन को समझाकर टालते जाते थे। समाचारपत्रों में जब दहेज-विरोधी के बड़े-बड़े लेख पढ़ते, तो बहुत प्रसन्न होते। गंगाजली से कहते कि अब एक दो साल में ही यह कुरीति मिटी जाती है। चिंता की कोई जरूरत नहीं। यहां तक कि इसी तरह सुमन का सोलहवां वर्ष लग गया।

अब कृष्णचन्द्र अपने को अधिक धोखा नहीं दे सके। उनकी पूर्व निश्चिंतता वैसी न थी, जो अपने सामर्थ्य के ज्ञान से उत्पन्न होती है। उसका मूल कारण उनकी अकर्मण्यता थी। उस पथिक की भाँति, जो दिन भर किसी वृक्ष के नीचे आराम से सोने के बाद संध्या को उठे और सामने एक ऊँचा पहाड़ देखकर हिम्मत हार बैठे, दारोगाजी भी घबरा गए। वर की खोज में दौड़ने लगे, कई जगहों से टिप्पणियां मंगवाईं। वह शिक्षित परिवार चाहते थे। वह समझते थे कि ऐसे घरों में लेन-देन की चर्चा न होगी, पर उन्हें यह देखकर बड़ा आश्चर्य हुआ कि वरों का मोल उनकी शिक्षा के अनुसार है। राशि, वर्ण ठीक हो जाने पर जब लेन-देन की बातें होने लगतीं, तब कृष्णचन्द्र की आँखों के सामने अंधेरा छा जाता था। कोई चार हजार सुनाता, कोई पांच हजार, और कोई इससे भी आगे बढ़ जाता। बेचारे निराश होकर लौट आते। आज छह महीने से दारोगाजी इसी चिंता में पड़े हैं। बुद्धि काम नहीं करती। इसमें संदेह नहीं कि शिक्षित सज्जनों को उनसे सहानुभूति थी; पर वह एक-न-एक ऐसी पख निकाल देते थे कि दारोगाजी को निरुत्तर हो जाना पड़ता था। एक सज्जन ने कहा– महाशय, मैं स्वयं इस कुप्रथा का जानी दुश्मन हूँ, लेकिन क्या करूँ, अभी पिछले साल लड़की का विवाह किया, दो हजार रुपये केवल दहेज में देने पड़े, दो हजार और खाने पीने में खर्च करने पडे़, आप ही कहिए, यह कमी कैसे पूरी हो?

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