उपन्यास >> सेवासदन (उपन्यास) सेवासदन (उपन्यास)प्रेमचन्द
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यह उपन्यास घनघोर दानवता के बीच कहीं मानवता का अनुसंधान करता है
बैजनाथ ने हंसकर कहा– मुझे को कोई रास्ता नहीं सूझता।
मदनसिंह– कुछ दिनों वकालत पढ़ ली होती तो यह भी करता। यहां अब कोई जवाब ही नहीं सूझता। क्यों भैया पद्मसिंह, मान लो तुम मेरी जगह होते, तो इस समय क्या जवाब देते।
पद्मसिंह– (हंसकर) जवाब तो कुछ-न-कुछ जरूर ही देता, चाहे तुक मिलती या न मिलती।
मदनसिंह– इतना तो मैं भी कहूंगा कि ऐसे जलसों से मन अवश्य चंचल हो जाता है। जवानी में जब मैं किसी जलसे से लौटता तो महीनों तक उसी वेश्या के रंग-रूप, हाव-भाव की चर्चा किया करता।
बैजनाथ– भैया, पद्मसिंह के ही मन की होने दीजिए। लेकिन कंबल अवश्य बंटवाइए।
मदनसिंह– एक कुआं बनवा दिया जाए, तो सदा के लिए नाम हो जाएगा। इधर भांवर पड़ी, उधर मैंने कुएं की नींव डाली।
२७
बरसात के दिन थे, छटा छाई हुई थी। पंडित उमानाथ चुनारगढ़ के निकट गंगा के तट पर खड़े नाव की बाट जोह रहे थे। वह कई गांवों का चक्कर लगाते हुए आ रहे थे और संध्या होने से पहले चुनार के पास एक गांव में जाना चाहते थे। उन्हें पता मिला था कि उस गांव में एक सुयोग्य वर है। उमानाथ आज ही अमोला लौट जाना चाहते थे, क्योंकि उनके गांव में एक छोटी-सी फौजदारी हो गई थी और थानेदार साहब कल तहकीकात करने आने वाले थे। मगर अभी तक नाव उसी पार खड़ी थी। उमानाथ को मल्लाहों पर क्रोध आ रहा था। सबसे अधिक क्रोध उन मुसाफिरों पर आ रहा था, जो उस पार धीरे-धीरे नाव में बैठने आ रहे थे। उन्हें दौड़ते हुए आना चाहिए था, जिससे उमानाथ को जल्द नाव मिल जाए। जब खड़े-खड़े बहुत देर हो गई तो उमानाथ ने जोर से चिल्लाकर मल्लाहों को पुकारा। लेकिन उनकी कंठध्वनि को मल्लाहों के कान में पहुंचने की प्रबल आकांक्षा न थी। वह लहरों से खेलती हुई उन्हीं में समा गई।
इतने में उमानाथ ने एक साधु को अपनी ओर आते देखा। सिर पर जटा, गले में रुद्राक्ष की माला, एक हाथ में सुलफे की लंबी चिलम, दूसरे हाथ में लोहे की छड़ी, पीठ पर मृगछाला लपेटे हुए आकर नदी के तट पर खड़ा हो गया। वह भी उस पार जाना चाहता था।
उमानाथ को ऐसी भावना हुई कि मैंने इस साधु को कहीं देखा है, पर याद नहीं पड़ता कि कहां? स्मृति पर परदा-सा पड़ा हुआ था।
अकस्मात् साधु ने उमानाथ की ओर ताका और तुरंत उन्हें प्रणाम करके बोला– महाराज! घर पर तो सब कुशल है, यहां कैसे आना हुआ?
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