उपन्यास >> सेवासदन (उपन्यास) सेवासदन (उपन्यास)प्रेमचन्द
|
361 पाठक हैं |
यह उपन्यास घनघोर दानवता के बीच कहीं मानवता का अनुसंधान करता है
सब लोग मूर्तिवत बैठे महात्मा की उन्मत्त वाणी सुन रहे थे कि इतने में वह अदृश्य हो गए और सामने वाले आम के वृक्षों की आड़ से उनके मधुर गान की ध्वनि सुनाई देने लगी। धीरे-धीरे वह भी अंधकार में विलीन हो गई, जैसे रात्रि में चिंता रूपी नाव निद्रासागर में विलीन हो जाती है। जैसे जुआरियों का जत्था पुलिस के अधिकारी को देखकर सन्नाटे में आ जाता है, कोई रुपये-पैसे समेटने लगता है, कोई कौड़ियों को छिपा लेता है, उसी प्रकार साधु के आकस्मिक आगमन, उनके तेजस्वी स्वरूप और अलौकिक उपदेशों ने लोगों को एक अव्यक्त अनिष्ठ भय से शंकित कर दिया। उपद्रवी दुर्जनों ने चुपके से घर की राह ली और जो लोग महफिल में बैठे अधीर हो रहे थे और मन में पछता रहे थे कि व्यर्थ यहां आए, वह ध्यानपूर्वक गाना सुनने लगे। कुछ सरल हृदय मनुष्य महात्मा के पीछे दौड़े, पर उनका कहीं पता न मिला।
पंडित मदनसिंह अपनी छोलदारी में बैठे हुए गहने-कपड़े सहेज रहे थे कि मुंशी बैजनाथ दौड़े हुए आए और बोले– भैया! अनर्थ हो गया। आपने यहां नाहक ब्याह किया।
मदनसिंह ने चकित होकर पूछा– क्यों, क्या हुआ, क्या कुछ गड़बड़ है?
‘हां, अभी इसी गांव का एक आदमी मुझसे मिला था, उसने इन लोगों की ऐसी कलई खोली कि मेरे होश उड़ गए।’
‘क्या ये लोग नीच कुल के हैं?’
‘नीच कुल के तो नहीं हैं, लेकिन मामला कुछ गड़बड़ है। कन्या का पिता हाल में जेलखाने से छूटकर आया है और कन्या की एक बहन वेश्या हो गई है। दालमंडी में जो सुमनबाई है, वह इसी कन्या की सगी बहन है।’
मदनसिंह को मालूम हुआ कि वह किसी पेड़ पर से फिसल पड़े। आंखें फाड़कर बोले– वह आदमी इन लोगों का कोई बैरी तो नहीं? विघ्न डालने के लिए लोग बहुधा झूठमूठ कलंक लगा दिया करते हैं।
पद्मसिंह– हां, ऐसी ही बात मालूम होती है।
बैजनाथ– जी नहीं, वह तो कहता था, मैं उनलोगों के मुंह पर कह दूं।
मदनसिंह– तो क्या लड़की उमानाथ की नहीं है?
बैजनाथ– जी नहीं, उनकी भांजी है। वह जो एक बार थानेदार पर मुकदमा चला था, वही थानेदार उमानाथ के बहनोई है, कई महीनों से छूटकर आए हैं।
मदनसिंह ने माथा पकड़कर कहा– ईश्वर! तुमने कहां लाकर फंसाया?
पद्मसिंह– उमानाथ को बुलाना चाहिए।
|