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सेवासदन (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :535
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8632
आईएसबीएन :978-1-61301-185

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यह उपन्यास घनघोर दानवता के बीच कहीं मानवता का अनुसंधान करता है


धीरे-धीरे सुमन के सौंदर्य की चर्चा मुहल्ले में फैली। पास-पड़ोस की स्त्रियां आने लगीं। सुमन उन्हें नीच दृष्टि से देखती, उनसे खुलकर न मिलती। पर उसके रीति-व्यवहार में वह गुण था, जो ऊंचे कुलों में स्वाभाविक होता है। पड़ोसियों ने शीघ्र ही उसका आधिपत्य स्वीकार कर लिया। सुमन उनके बीच में रानी मालूम होती थी। उसकी सगर्वा प्रकृति को इसमें अत्यंत आनंद प्राप्त होता था। वह उन स्त्रियों के सामने अपने गुणों को बढ़ाकर दिखाती। वे अपने भाग्य को रोतीं, सुमन अपने भाग्य सराहती। वे किसी की निंदा करतीं, तो सुमन उन्हें समझाती। वह उसके सामने रेशमी साड़ी पहनकर बैठती, जो वह मैके से लाई थी। रेशमी जाकट खूंटी पर लटका दी। उन पर इस प्रदर्शन का प्रभाव सुमन की बातचीत से कहीं अधिक होता था। वे आभूषण के विषय में उसकी सम्मति को बड़ा महत्त्व देतीं। नए गहने बनवातीं तो सुमन से सलाह लेतीं, साड़ियां लेतीं तो पहले सुमन को अवश्य दिखा लेतीं। सुमन गौर से उन्हें निष्काम भाव से सलाह देती, पर उससे मन में बड़ा दुःख होता। वह सोचती, यह सब नए-नए गहने बनवाती हैं, नए-नए कपड़े लेती हैं और यहां रोटियों के लाले हैं। क्या संसार में मैं ही सबसे अभागिन हूं? उसने अपने घर यही सीखा था कि मनुष्य को जीवन में सुख-भोग करना चाहिए। उसने कभी वह धर्म-चर्चा न सुनी थी, वह धर्म-शिक्षा न पाई थी, जो मन में संतोष का बीजारोपण करती है। उसका हृदय असंतोष से व्याकुल रहने लगा।

गजाधर इन दिनों बड़ी मेहनत करता। कारखाने से लौटते ही एक दूसरी दुकान पर हिसाब-किताब लिखने चला जाता था। वहां से आठ बजे रात को लौटता। इस काम के लिए उसे पांच रुपए और मिलते थे। पर उसे अपनी आर्थिक दशा में कोई अंतर न दिखाई देता था। उसकी सारी कमाई खाने-पीने में उड़ जाती थी। उसका संचयशील हृदय इस ‘खा-पी बराबर’ दशा से बहुत दुःखी रहता था। उस पर सुमन उसके सामने अपने फूटे कर्म का रोना रो-रोकर उसे और भी हताश कर देती थी। उसे स्पष्ट दिखाई देता था कि सुमन का हृदय मेरी ओर से शिथिल होता जाता है। उसे यह न मालूम था कि सुमन मेरी प्रेम-रसपूर्ण बातों से मिठाई के दोनों को अधिक आनंदप्रद समझती है। अतएव वह अपने प्रेम और परिश्रम से फल न पाकर, उसे अपने शासनाधिकार से प्राप्त करने की चेष्टा करने लगा। इस प्रकार रस्सी में दोनों ओर से तनाव होने लगा।

हमारा चरित्र कितना ही दृढ़ हो, पर उस पर संगति का असर अवश्य होता है। सुमन अपने पड़ोसियों को जितनी शिक्षा देती थी, उससे अधिक उनसे ग्रहण करती थी। हम अपने गार्हस्थ्य जीवन की ओर से कितने बेसुध हैं, उसके लिए किसी तैयारी, किसी शिक्षा की जरूरत नहीं समझते। गुड़िया खेलनेवाली बालिका, सहेलियों के साथ विहार करनेवाली युवती, गृहिणी बनने के योग्य समझी जाती है। अल्हड़ बछड़े के कंधे पर भारी जुआ रख दिया जाता है। ऐसी दशा में यदि हमारा गार्हस्थ जीवन आनंदमय न हो, तो कोई आश्चर्य नहीं। जिन महिलाओं के साथ सुमन उठती-बैठती थी, वे अपने पतियों को इंद्रियसुख का यंत्र समझती थीं। पति, चाहे जैसे हो, अपनी स्त्री को सुंदर आभूषणों से, उत्तम वस्त्रों से सजाए, उसे स्वादिष्ट पदार्थ खिलाए। यदि उसमें वह सामर्थ्य नहीं है तो वह निखट्टू है, अपाहिज है, उसे विवाह करने का कोई अधिकार नहीं था, वह आदर और प्रेम के योग्य नहीं। सुमन ने भी यही शिक्षा प्राप्त की और गजाधरप्रसाद जब कभी उसके किसी काम से नाराज होते, तो उन्हें पुरुषों के कर्त्तव्य पर एक लंबा उपदेश सुनना पड़ता था।

उस मुहल्ले में रसिक युवकों तथा शोहदों की भी कमी न थी। स्कूल से आते हुए युवक सामने के द्वार की ओर टकटकी लगाते हुए चले जाते। शोहदे उधर से निकलते तो राधा और कान्हा के गीत गाने लगते। सुमन कोई काम भी करती हो, पर उन्हें चिक की आड़ से एक झलक दिखा देती। उसके चंचल हृदय को इस ताक-झांक में असीम आनंद प्राप्त होता था। किसी कुवासना से नहीं, केवल अपने यौवन की छटा दिखाने के लिए केवल दूसरों के हृदय पर विजय पाने के लिए वह यह खेल खेलती थी।

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