उपन्यास >> सेवासदन (उपन्यास) सेवासदन (उपन्यास)प्रेमचन्द
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यह उपन्यास घनघोर दानवता के बीच कहीं मानवता का अनुसंधान करता है
घाट के निकट पहुंचने पर सदन ने एक स्त्री को घाट की ओर से आते देखा। तुरंत पहचान गया। यह सुमन थी, पर कितनी बदली हुई। न वह लंबे-लंबे केश थे, न वह कोमल गति, न वह हंसते हुए गुलाब के-से होंठ; न वह चंचल ज्योति से चमकती हुई आंखें, न वह बनाव-सिंगार, न वह रत्नजटित आभूषणों की छटा, वह केवल सफेद साड़ी पहने हुए थी। उसकी चाल में गंभीरता और मुख से नैराश्य भाव झलकता था। काव्य वही था, पर अलंकार-विहीन, इसलिए सरल और मार्मिक। उसे देखते ही सदन प्रेम से विह्वल होकर, कई पग बड़े वेग से चला, पर उसका यह रूपांतर देखा तो ठिठक गया, मानो उसे पहचानने में भूल हुई, मानो वह सुमन नहीं कोई और स्त्री थी। उसका प्रेमोत्साह भंग हो गया। समझ में न आया कि यह कायापलट क्यों हो गया? उसने फिर सुमन की ओर देखा। वह उसकी ओर तक ताक रही थी, पर उसकी दृष्टि में प्रेम की जगह एक प्रकार की चिंता थी, मानो वह उन पिछली बातों को भूल गई है या भूलना चाहती है। मानो वह हृदय की दबी हुई आग को उभारना नहीं चाहती। सदन को ऐसा अनुमान हुआ कि वह मुझे नीच, धोखेबाज और स्वार्थी समझ रही है। उसने एक क्षण के बाद फिर उसकी ओर देखा– यह निश्चय करने के लिए कि मेरा अनुमान भ्रांतिपूर्ण तो नहीं है। फिर दोनों की आंखें मिलीं, पर मिलते ही हट गईं। सदन को अपने अनुमान का निश्चय हो गया। निश्चय के साथ ही अभिमान का उदय हुआ। उसने अपने मन को धिक्कारा। अभी-अभी मैंने अपने को इतना समझाया है और इतनी देर में फिर उन्हीं कुवासनाओं में पड़ गया। उसने फिर सुमन की तरफ नहीं देखा। वह सिर झुकाए उसके सामने से निकल गई। सदन ने देखा, उसके पैर कांप रहे थे, वह जगह से न हिला, कोई इशारा भी न किया। अपने विचार में उसने सुमन पर सिद्ध कर दिया कि अगर तुम मुझसे एक कोस भागोगी, तो मैं तुमसे सौ कोस भागने को प्रस्तुत हूं। पर उसे यह ध्यान न रहा कि मैं अपनी जगह मूर्तिवत् खड़ा हूं। जिन भावों को उसने गुप्त रखना चाहा, स्वयं उन्हीं भावों की मूर्ति बन गया।
जब सुमन कुछ दूर निकल गई, तो वह लौट पड़ा और उसके पीछे अपने को छिपाता हुआ चला। वह देखना चाहता था कि सुमन कहां जाती है। विवेक ने वासना के आगे सिर झुका लिया।
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