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सेवासदन (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :535
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8632
आईएसबीएन :978-1-61301-185

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यह उपन्यास घनघोर दानवता के बीच कहीं मानवता का अनुसंधान करता है


कृष्णचन्द्र ने यह संकल्प तो कर लिया, पर अभी तक उन्होंने यह न सोचा कि शान्ता की क्या गति होगी? इस अपमान की लज्जा ने उनके हृदय में और किसी चिंता के लिए स्थान न रखा था। उनकी दशा उस मनुष्य की-सी थी, जो अपने बालक को मृत्यु-शैया पर छोड़कर अपने किसी शत्रु से बैर चुकाने के लिए उद्यत हो जाए, जो डोंगी पर बैठा हुआ पानी में सर्प देखकर उसे मारने के लिए झपटे और उसे यह सुधि न रहे कि इस झपट से डोंगी डूब जाएगी।

संध्या का समय था। कृष्णचन्द्र ने आज हत्या-मार्ग पर चलने का निश्चय कर लिया था। इस समय उनका चित्त कुछ उदास था। यह वही उदासीनता थी, जो किसी भयंकर काम के पहले चित्त पर आच्छादित हो जाया करती है। कई दिनों तक क्रोध के वेग से उत्तेजित और उन्मत्त रहने के बाद उनका मन इस समय कुछ शिथिल हो गया था। जैसे वायु कुछ समय तक वेग से चलने के बाद शांत हो जाती है। चित्त की ऐसी अवस्था में यह उदासीनता बहुत ही उपयुक्त होती है। उदासीनता वैराग्य का सूक्ष्य स्वरूप है, जो थोड़ी देर के लिए मनुष्य को अपने जीवन पर विचार करने की क्षमता प्रदान कर देती है, उस समय पूर्वस्मृतियां हृदय में क्रीड़ा करने लगती हैं। कृष्णचन्द्र को वे दिन याद आ रहे थे, जब उनका जीवन आनंदमय था, जब वह नित्य संध्या समय अपनी दोनों पुत्रियों को साथ लेकर सैर करने जाया करते थे। कभी सुमन को गोद में उठाते, कभी शान्ता को। जब वे लौटते तो गंगाजली किस तरह प्रेम से दौड़कर दोनों लड़कियों को प्यार करने लगती थी। किसी आनंद का अनुभव इतना सुखद नहीं होता, जितना उसका स्मरण। वही जंगल और पहाड़, जो कभी आपको सुनसान और बीहड़ प्रतीत होते थे, वह नदियां और झीलें जिनके तट पर से आप आंखें बंद किए निकल जाते थे, कुछ समय के पीछे एक अत्यंत मनोरम, शांतिमय रूप धारण करके स्मृतिनेत्रों के सामने आती है और फिर आप उन्हीं दृश्यों को देखने की आकांक्षा करने लगते हैं। कृष्णचन्द्र उस भूतकालिक जीवन का स्मरण करते-करते गद्गद हो गए। उनकी आंखों से आंसू की बूंदें टपक पड़ी। हाय! उस आनंदमय जीवन का ऐसा विषादमय अंत हो रहा है! मैं अपने ही हाथों से अपनी ही गोद की खिलाई हुई लड़की का वध करने को प्रस्तुत हो रहा हूं। कृष्णचन्द्र को सुमन पर दया आई। वह बेचारी कुएं में गिर पड़ी है। क्या मैं अपनी ही लड़की पर, जिसे मैं आंखों की पुतली समझता था, जिसे सुख से रहने के लिए मैंने कोई बात उठा नहीं रखी, इतना निर्दय हो जाऊं कि उस पर पत्थर फेकूं? लेकिन यह दया का भाव कृष्णचन्द्र के हृदय में देर तक न रह सका। सुमन के पापाभिनय का सबसे घृणोत्पादक भाग यह था कि आज उसका दरवाजा सबके लिए खुला हुआ है। हिंदू, मुसलमान सब वहां प्रवेश कर सकते हैं। यह खयाल आते ही कृष्णचन्द्र का हृदय लज्जा और ग्लानि से भर गया।

इतने में पंडित उमानाथ उनके पास आकर बैठ गए और बोले– मैं वकील के पास गया था। उनकी सलाह है कि मुकदमा दायर करना चाहिए!

कृष्णचन्द्र ने चौंककर पूछा– कैसा मुकदमा?

उमानाथ– उन्हीं लोगों पर, जो द्वार से बारात लौटा ले गए।

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