उपन्यास >> सेवासदन (उपन्यास) सेवासदन (उपन्यास)प्रेमचन्द
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यह उपन्यास घनघोर दानवता के बीच कहीं मानवता का अनुसंधान करता है
गजाधर बोले– इसका कारण मेरा अन्याय था। यह सब मेरी निर्दयता और अमानुषीय व्यवहार का फल है। वह सर्वगुण संपन्न थी। वह इस योग्य थी कि किसी बड़े घर की स्वामिनी बनती। मुझ जैसा दुष्ट, दुरात्मा, दुराचारी मनुष्य उसके योग्य न था। उस समय मेरी स्थूल दृष्टि उसके गुणों को न देख सकी। ऐसा कोई कष्ट न था, जो उस देवी को मेरे साथ न झेलना पड़ा हो। पर उसने कभी मन मैला न किया। वह मेरा आदर करती थी। पर उसका यह व्यवहार देखकर मुझे उस पर संदेह होता था कि वह मेरे साथ कोई कौशल कर रही है। उसका संतोष, उसकी भक्ति, उसकी गंभीरता मेरे लिए दुर्बोध थी। मैं समझता था, वह मुझसे कोई चाल चल रही है। अगर वह मुझसे छोटी-छोटी वस्तुओं के लिए झगड़ा करती, रोती, कोसती, ताने देती, तो उस पर मुझे विश्वास होता। उसका ऊंचा आदर्श मेरे अविश्वास का कारण हुआ। मैं उसके सतीत्व पर संदेश करने लगा। अंत में वह दशा हो गई कि एक दिन, रात को एक सहेली के घर पर केवल जरा विलंब हो जाने के कारण मैंने उसे घर से निकाल दिया।
कृष्णचन्द्र बात काटकर बोले– तुम्हारी बुद्धि उस समय कहां गई थी? तुमको जरा भी ध्यान न रहा कि तुम इस अपनी निर्दयता से कितने बड़े कुल को कलंकित कर रहे हो?
गजाधर– महाराज, अब मैं क्या बताऊं कि मुझे क्या हो गया था? मैंने फिर उसकी सुध न ली। पर उसका अंतःकरण शुद्ध था। पापाचरण से उसे घृणा थी। अब वह विधवाश्रम में रहती है और सब उससे प्रसन्न हैं। उसकी धर्मनिष्ठा देखकर लोग चकित हो जाते हैं।
गजाधर की बातें सुनकर कृष्णचन्द्र का हृदय सुमन की ओर से कुछ नरम पड़ गया। लेकिन वह जितना ही इधर नरम था, उतना ही दूसरी ओर कठोर हो गया। जैसे साधारण गति से बहती जलधारा दूसरी ओर और भी वेग से बहने लगती है। उन्होंने गजाधर को सरोष नेत्रों से देखा, जैसे कोई भूखा सिंह अपने शिकार को देखता है। उन्हें निश्चय हो रहा था कि यह मनुष्य मेरे कुल को कलंकित करने वाला है। इतना ही नहीं उसने सुमन के साथ भी अन्याय किया है। उसे नाना प्रकार के कष्ट दिए हैं। क्या मैं उसे केवल इसलिए छोड़ दूं कि वह अब अपने दुष्कृत्यों पर लज्जित है? लेकिन उसने ये बातें मुझसे कह क्यों दीं? कदाचित् वह समझता है कि मैं उसका कुछ नहीं बिगाड़ सकता। यही बात है, नहीं तो वह मेरे सामने अपना अपराध इतनी निर्भयता से क्यों स्वीकार करता? कृष्णचन्द्र ने गजाधर के मनोभावों को न समझा। वह क्षण-भर आग की तरफ ताकते रहे, फिर कठोर स्वर में बोले– गजाधर, तुमने मेरे कुल को डुबो दिया। तुमने मुझे कहीं मुंह दिखाने योग्य न रखा। तुमने मेरी लड़की की जान ले ली– उसका सत्यानाश कर दिया, तिस पर भी तुम मेरे सामने इस तरह बैठे हो, मानो कोई महात्मा हो। तुम्हें चुल्लू-भर पानी में डूब मरना चाहिए।
गजाधर जमीन की मिट्टी खुरच रहे थे। उन्होंने सिर न उठाया।
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