उपन्यास >> सेवासदन (उपन्यास) सेवासदन (उपन्यास)प्रेमचन्द
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यह उपन्यास घनघोर दानवता के बीच कहीं मानवता का अनुसंधान करता है
इन शब्दों ने गजाधर के घाव पर नमक छिड़क दिया। यह मुझे इतना नीच समझती है कि मैं इसकी सिफारिश से अपनी तरक्की कराऊंगा। ऐसी तरक्की पर लात मारता हूं। उसने भोली को कुछ जवाब न दिया।
सुमन ने उसके तेवर देखे, तो समझ गई कि आग भड़का ही चाहती है, पर वह उसके लिए तैयार बैठी हुई थी। गजाधर ने भी अपने क्रोध को छिपाया नहीं। चारपाई पर बैठते हुए बोला– तुमने फिर भोली से नाता जोड़ा? मैंने उस दिन मना नहीं किया था?
सुमन ने सावधान होकर उत्तर दिया– उसमें कोई छूत तो नहीं लगी है। शील स्वभाव में वह किसी से घटकर नहीं, मान-मर्यादा में किसी से कम नहीं, फिर उससे बातचीत करने में मेरी क्या हेठी हुई जाती है? वह चाहे तो हम जैसों को नौकर रख ले।
गजाधर– फिर तुमने वही बेसिर-पैर की बातें कीं। मान-मर्यादा धन से नहीं होती।
सुमन– पर धर्म से तो होती है?
गजाधर– तो वह बड़ी धर्मात्मा है?
सुमन– यह भगवान् जाने, पर धर्मात्मा लोग उसका आदर करते हैं। अभी राम-नवमी के उत्सव में मैंने उसे बड़े-बड़े पंडितों और महात्माओं की मंडली में गाते देखा। कोई उससे घृणा नहीं करता था। सब उसका मुंह देख रहे थे। लोग उसका आदर-सत्कार ही नहीं करते थे, बल्कि उससे बातचीत करने में अपना अहोभाग्य समझते थे। मन में वह उससे घृणा करते थे या नहीं, यह ईश्वर जाने, पर देखने में तो उस समय भोली-ही-भोली दिखाई देती थी। संसार तो व्यवहारों को ही देखता है, मन की बात कौन किसकी जानता है?
गजाधर– तो तुमने उन लोगों के बड़े-बड़े तिलक छापे देखकर ही उन्हें धर्मात्मा समझ लिया? आजकल धर्म तो धूर्तों का अड्डा बना हुआ है। इस निर्मल सागर में एक-से-एक मगरमच्छ पड़े हुए हैं। भोले-भाले भक्तों को निगल जाना उनका काम है। लंबी-लंबी जटाएं, लंबे-लंबे तिलक छापे और लंबी-लंबी दाढ़ियां देखकर लोग धोखे में आ जाते हैं, पर वह सब के सब महापाखंडी, धर्म के उज्जवल नाम को कलंकित करने वाले, धर्म के नाम पर टका कमानेवाले, भोग-विलास करने वाले पापी हैं। भोली का आदर-सम्मान उनके यहां न होगा, तो किसके यहां होगा?
सुमन ने सरल भाव से पूछा– फुसला रहे हो या सच कह रहे हो?
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