उपन्यास >> सेवासदन (उपन्यास) सेवासदन (उपन्यास)प्रेमचन्द
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यह उपन्यास घनघोर दानवता के बीच कहीं मानवता का अनुसंधान करता है
इतने में फिर एक गाड़ी सामने से आ पहुंची। रक्षक अभी सुमन से हाथापाई कर ही रहा था कि गाड़ी में से एक भलेमानस उतरकर चौकीदार के पास झपटे हुए आए और उसे जोर से धक्का देकर बोले– क्यों बे, इनका हाथ क्यों पकड़ता? दूर हट।
चौकीदार हकलाकर पीछे हट गया। चेहरे पर हवाइयां उड़ने लगीं। बोला– सरकार क्या यह आपके घर की हैं?
भद्र पुरुष ने क्रोध में कहा– हमारे घर की हो या न हों, तू इनसे हाथापाई क्यों कर रहा था? अभी रिपोर्ट कर दूं तो नौकरी से हाथ धो बैठेगा।
चौकीदार हाथ-पैर जोड़ने लगा। इतने में गाड़ी में बैठी हुई महिला ने सुमन को इशारे से बुलाया और पूछा– यह तुमसे क्या कह रहा था?
सुमन– कुछ नहीं। मैं इस बेंच पर बैठी थी, वह मुझे उठाना चाहता था। अभी दो वेश्याएं इसी बेंच पर बैठी थीं। क्या मैं ऐसी गई बीती हूं कि वह मुझे वेश्याओं से भी नीच समझे?
रमणी ने उसे समझाया कि यह छोटे आदमी, जिससे चार पैसे पाते है, उसी की गुलामी करते हैं। इनके मुंह लगना अच्छा नहीं।
दोनों स्त्रियों में परिचय हुआ। रमणी का नाम सुभद्रा था। वह भी सुमन के मुहल्ले में, पर उसके मकान से जरा दूर रहती थी। उसके पति वकील थे। स्त्री-पुरुष गंगास्नान करके घर जा रहे थे। यहां पहुंचकर उसके पति ने देखा कि चौकीदार एक भले घर की स्त्री से झगड़ा कर रहा है, तो गाड़ी से उतर पड़े।
सुभद्रा सुमन के रंग-रूप, बातचीत पर ऐसी मोहित हुई कि उसे अपनी गाड़ी में बैठा लिया। वकील साहब कोचबक्स पर जा बैठे। गाड़ी चली। सुमन को ऐसा मालूम हो रहा था कि वह विमान पर बैठी स्वर्ग को जा रही है। सुभद्रा यद्यपि बहुत रूपवती न थी और उसके वस्त्राभूषण भी साधारण ही थे, पर उसका स्वभाव ऐसा नम्र, व्यवहार ऐसा सरल तथा विनयपूर्ण था कि सुमन का हृदय पुलकित हो गया। रास्ते में उसने उसकी सहेलियों को जाते देख, खिड़की खोलकर उनकी ओर गर्व से देखा, मानो कह रही थी, तुम्हें भी कभी यह सौभाग्य प्राप्त हो सकता है? इस पर गर्व के साथ ही उसे यह भय भी था कि कहीं मेरा मकान देखकर सुभद्रा मेरा तिरस्कार न करने लगे। जरूर यही होगा। यह क्या जानती है कि मैं ऐसे फटेहालों रहती हूं। यह कैसी भाग्यवान स्त्री है! कैसा देवरूप पुरुष है। यह न आ जाते, तो वह निर्दयी चौकीदार न जाने मेरी क्या दुर्गति करता। कितनी सज्जनता है कि मुझे भीतर बिठा दिया और आप कोचवान के साथ जा बैठे। वह इन्हीं विचारों में मग्न थी कि उसका घर आ गया। उसने सकुचाते हुए सुभद्रा से कहा– गाड़ी रुकवा दीजिए, मेरा घर आ गया।
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