उपन्यास >> सेवासदन (उपन्यास) सेवासदन (उपन्यास)प्रेमचन्द
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यह उपन्यास घनघोर दानवता के बीच कहीं मानवता का अनुसंधान करता है
इस साल महंतजी तीर्थयात्रा करने गए थे। वहाँ से आकर उन्होंने एक बड़ा यज्ञ किया था। एक महीने तक हवनकुंड जलता रहा, महीनों तक कड़ाह न उतरे, पूरे दस हजार महात्माओं का निमंत्रण था। इस यज्ञ के लिए इलाके के प्रत्येक आसामी से हल पीछे पांच रुपया चंदा उगाहा गया था। किसी ने खुशी से दे दिया, किसी ने उधार लेकर और जिनके पास न था, उसे रुक्का ही लिखना पड़ा। ‘श्रीबांकेबिहारीजी’ की आज्ञा को कौन टाल सकता था? यदि ठाकुर जी को हार माननी पड़ी, तो केवल एक अहीर से, जिसका नाम चैतू था। वह बूढ़ा दरिद्र आदमी था। कई साल से उसकी फसल खराब हो रही थी। थोड़े ही दिन हुए ‘श्रीबांकेबिहारीजी’ ने उस पर इजाफा लगान की नालिश करके उसे ऋण के बोझ से और दबा दिया था। उसने यह चंदा देने से इनकार किया, यहां तक कि रुक्का भी न लिखा। ठाकुरजी ऐसे द्रोही को भला कैसे क्षमा करते? एक दिन कई महात्मा चैतू को पकड़ लाए। ठाकुरद्वारे के सामने उस पर मार पड़ने लगी। चैतू भी बिगड़ा। हाथ तो बँधे हुए थे, मुँह से लात-घूंसों का जवाब देता रहा और जब तक जबान बंद न हो गई, चुप न हुआ। इतना कष्ट देकर ठाकुरजी को संतोष न हुआ, उसी रात को उसके प्राण हर लिए। प्रातः काल चौकीदार ने थाने में रिपोर्ट की।
दरोगा कृष्णचन्द्र को मालूम हुआ, मानो ईश्वर ने बैठे-बिठाये सोने की चिड़ियाँ उनके पास भेज दी। तहकीकात करने चले।
लेकिन महंत जी की उस इलाके में ऐसी धाक जमी हुई थी कि दारोगाजी को कोई गवाही न मिल सकी। लोग एकांत में आकर उनसे सारा वृतांत कह जाते थे, पर कोई अपना बयान नहीं देता था।
इस प्रकार तीन-चार दिन बीत गए। महंत पहले तो बहुत अकड़े रहे। उन्हें निश्चय था कि यह भेद न खुल सकेगा। लेकिन जब पता चला कि दारोगाजी ने कई आदमियों को फोड़ लिया है, तो कुछ नरम पड़े। अपने मुख्तार को दरोगाजी के पास भेजा। कुबेर की शरण ली। लेन-देन की बातचीत होने लगी। कृष्णचन्द्र ने कहा– मेरा हाल तो आप लोग जानते हैं कि रिश्वत को काला नाग समझता हूं। मुख्तार ने कहा– हां यह तो मालूम है, किंतु साधु-संतों पर कृपा रखनी ही चाहिए। इसके बाद दोनों सज्जनों में कानाफूसी हुई मुख्तार ने कहा– नहीं सरकार, पांच हजार बहुत होते हैं। महंतजी को आप जानते हैं। वह अपनी टेक पर आ जाएंगे, तो चाहे फांसी ही हो जाए जौ-भर न हटेंगे। ऐसा कीजिए कि उनको कष्ट न हो, आपका भी काम निकल जाए। अंत में तीन हजार में बात पक्की हो गई।
पर कड़वी दवा खरीदकर लाने, उसका काढ़ा बनाने, और उसे उठाकर पीने में बहुत अंतर है। मुख्तार तो महंत के पास गया और कृष्णचन्द्र सोचने लगे, यह मैं क्या कर रहा हूं?
एक ओर रुपयों का ढेर था और चिंता-व्याधि से मुक्त होने की आशा, दूसरी ओर आत्मा का सर्वनाश और परिणाम का भय। न हां करते बनता था, न नहीं।
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