उपन्यास >> सेवासदन (उपन्यास) सेवासदन (उपन्यास)प्रेमचन्द
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यह उपन्यास घनघोर दानवता के बीच कहीं मानवता का अनुसंधान करता है
होली के दिन पद्मसिंह अवश्य घर आया करते थे। अबकी भी एक सप्ताह पहले उनका पत्र आया था कि हम आएंगे। सदन रेशमी अचकन और वारनिशदार जूते के स्वप्न देख रहा था। होली के एक दिन पहले मदनसिंह ने स्टेशन पर पालकी भेजी, प्रातःकाल भी, संध्या भी। दूसरे दिन भी दोनों जून सवारी गई, लेकिन वहां तो भोलीबाई के मुजरे की ठहर चुकी थी, घर कौन आता? यह पहली होली थी कि पद्मसिंह घर नहीं आए। भामा रोने लगी। सदन के नैराश्य की तो सीमा ही न थी, न कपड़े, न लत्ते, होली कैसे खेले! मदनसिंह भी मन मारे बैठे थे। एक उदासी-सी छाई हुई थी। गांव की रमणियां होली खेलने आईं। भामा को उदास देखकर तसल्ली देने लगीं, ‘बहन’ पराया कभी अपना नहीं होता, वहां दोनों जने शहर की बहार देखते होंगे, गांव में क्या करने आते?’ गाना-बजाना हुआ, पर भामा का मन न लगा। मदनसिंह होली के दिन खूब भांग पिया करते थे। आज भांग छुई तक नहीं। सदन सारे दिन नंगे बदन मुंह लटकाए बैठा था। संध्या को जाकर मां से बोला– मैं चचा के पास जाऊंगा।
भामा– वहां तेरा कौन बैठा हुआ है?
सदन– क्यों, चचा नहीं है?
भामा– अब वह चचा नहीं हैं, वहां कोई तुम्हारी बात भी न पूछेगा।
सदन– मैं तो जाऊंगा।
भामा– एक बार कह दिया, मुझे दिक मत करो, वहां जाने को मैं न कहूंगी।
ज्यों-ज्यों भामा मना करती थी, सदन जिद पकड़ता था। अंत में वह झुंझलाकर वहां से उठ गई। सदन भी बाहर चला आया। जिद सामने की चोट नहीं सह सकती, उस पर बगली वार करना चाहिए।
सदन ने मन में निश्चय किया कि चाचा के पास भाग चलना चाहिए। न जाऊं तो यह लोग कौन मुझे रेशमी अचकन बनवा देंगे। बहुत प्रसन्न होंगे तो एक नैनसुख का कुरता सिलवा देंगे। एक मोहनमाला बनवाई है, तो जानते होंगे, जग जीत लिया। एक जोशन बनवाया है, तो सारे गांव में दिखाते फिरते हैं। मानों अब मैं जोशन पहनकर बैठूंगा। मैं तो जाऊंगा, देखूं कौन रोकता है?
यह निश्चय करके वह अवसर ढूंढने लगा। रात को सब लोग सो गए, तो चुपके से उठकर घर से निकल खड़ा हुआ। स्टेशन वहां से तीन मील के लगभग था। चौथ का चांद डूब चुका था, अंधेरा छाया हुआ था। गांव के निकास पर बांस की एक कोठी थी। सदन वहां पहुंचा तो कुछ चूं-चूं की आवाज सुनाई दी। उसका कलेजा सन्न रह गया। लेकिन शीघ्र ही मालूम हो गया कि बांस आपस में रगड़ खा रहे हैं। जरा और आगे एक आम का पेड़ था। बहुत दिन हुए, इस पर से एक कुर्मी का लड़का गिरकर मर गया था। सदन यहां पहुंचा तो उसे शंका हुई, जैसे कोई खड़ा है। उसके रोंगटे खड़े हो गए, सिर में चक्कर-सा आने लगा। लेकिन मन को संभालकर जरा ध्यान से देखा तो कुछ न था। लपककर आगे बढ़ा। गांव से बाहर निकल गया।
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