उपन्यास >> सेवासदन (उपन्यास) सेवासदन (उपन्यास)प्रेमचन्द
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यह उपन्यास घनघोर दानवता के बीच कहीं मानवता का अनुसंधान करता है
आज भी वह कचहरी में ज्यादा न ठहर सके। इन्हीं घृणित चर्चाओं से उकता कर दो बजे लौट आये। ज्योंही द्वार पर पहुंचे, सदन ने आकर उनके चरण-स्पर्श किए।
शर्माजी आश्चर्य से बोले– अरे सदन, तुम कब आए?
सदन– इसी गाड़ी से आया हूं।
पद्मसिंह– घर पर तो सब कुशल हैं?
सदन– जी हाँ, सब अच्छी तरह हैं?
पद्मसिंह– कब चले थे? इसी एक बजे वाली गाड़ी से?
सदन– जी नहीं, चला तो था नौ बजे रात को, किंतु गाड़ी में सो गया और मुगलसराय पहुंच गया। उधर से बारह बजे वाली डाक से आया हूं।
पद्मसिंह– वाह अच्छे रहे! कुछ भोजन किया?
सदन– जी हाँ, कर चुका।
पद्मसिंह– मैं तो अबकी होली में न जा सका। भाभी कुछ कहती थी?
सदन– आपकी राह लोग दो दिन तक देखते रहे। दादा दो दिन पालकी लेकर गए। अम्मा रोतीं थीं, मेरा जी न लगता था, रात को उठकर चला आया।
शर्माजी– तो घर पर पूछा नहीं?
सदन– पूछा क्यों नहीं, लोकिन आप तो उन लोगों को जानते हैं, अम्मा राजी न हुईं।
शर्माजी– तब तो वह लोग घबराते होंगे, ऐसा ही था, तो किसी को साथ ले लेते। खैर अच्छा हुआ, मेरा भी जी तुम्हें देखने को लगा था। अब आ गए तो किसी मदरसे में नाम लिखाओ।
सदन– जी हां, यही तो मेरा भी विचार है।
शर्माजी ने मदनसिंह के नाम पर तार दिया, ‘‘घबराइए मत। सदन यहीं आ गया है। उसका नाम किसी स्कूल में लिखा दिया जाएगा।’’
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