उपन्यास >> सेवासदन (उपन्यास) सेवासदन (उपन्यास)प्रेमचन्द
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यह उपन्यास घनघोर दानवता के बीच कहीं मानवता का अनुसंधान करता है
अब्दुल्लतीफ– वल्लाह, हम आपके नजर इंतखाव के कायल हैं। अभी तीन-चार दिनों से ही उसने दालमंडी में बैठना शुरू किया है, लेकिन इतने में ही उसने सबका रंग मात कर दिया है। उसके सामने अब किसी का रंग ही नहीं जमता। उसके बालखाने के सामने रंगीन मिजाजों का अंबोह जमा रहता है। मुखड़ा गुलाब है और जिस्म तपाया हुआ कुंदन। जनाब, मैं आपसे अजरूये ईमान कहता हूं कि ऐसी दिलफरेबी सूरत मैंने न देखी थी।
अबुलवफा– भाई, उसे देखकर भी कोई पाकबाजी का दावा करे, तो उसका मुरीद हो जाऊं। ऐसे लाले बेबहा को गूदड़ से निकालना आप ही जैसे हुस्नशिनास का काम है।
अब्दुललतीफ– बला की जहीन मालूम होती है। अभी आपके यहां से निकले हुए उसे पांच-छह महीने से ज्यादा नहीं हुए होंगे, लेकिन कल उनका गाना सुना तो दंग रह गए। इस शहर में उसका सानी नहीं। किसी के गले में वह लोच और नजाकत नहीं है।
अबुलवफा– अजी, जहां जाता हूं, उसी की चर्चा सुनता हूं। लोगों पर जादू-सा हो गया है। सुनता हूं, सेठ बलभद्रदासजी की आमदरफ्त शुरू हो गई। चलिए, आज आप भी पुरानी मुलाकात ताजा कर आइए। आपकी तुफैल में हम भी फैज पा जाएंगे।
अब्दुललतीफ– हम आपको खींच ले चलेंगे, इस वक्त आपको हमारी खातिर करनी होगी।
शर्माजी इस समाचार को सुनकर खेद, लज्जा और ग्लानि के बोझ से इतने दब गए कि सिर भी न उठा सके। जिस बात का उन्हें भय था, वह अंत में पूरी होकर ही रही। उनका जी चाहता था कि कहीं एकांत में बैठकर इस दुर्घटना की आलोचना करें और निश्चय करें कि इसका कितना भार उनके सिर पर है। इस दुराग्रह पर कुछ खिन्न होकर बोले– मुझे क्षमा कीजिए, मैं न चल सकूंगा।
अबुलवफा– क्यों?
शर्माजी– इसलिए कि एक भले घर की स्त्री को इस दशा में देखना मैं सहन नहीं कर सकता। आप लोग मन में चाहे जो समझें, किंतु उसका मुझसे केवल इतना ही संबंध है कि मेरी स्त्री के पास आती-जाती थी।
अब्दुलललीफ– जनाब, यह पारसाई की बातें किसी वक्त के लिए उठा रखिए। हमने इसी कूची में उम्र काट दी है, और इस रूमुज को खूब समझते हैं। चलिए, आपकी सिफारिश से हमारा भला हो जाएगा।
शर्माजी से अब सब्र न हो सका। अधीर होकर बोले– मैं कह चुका कि मैं वहां न जाऊंगा। मुझे उतर जाने दीजिए।
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