उपन्यास >> सेवासदन (उपन्यास) सेवासदन (उपन्यास)प्रेमचन्द
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यह उपन्यास घनघोर दानवता के बीच कहीं मानवता का अनुसंधान करता है
उन्होंने शर्माजी का पत्र पढ़ा, तो एक थप्पड़-सा मुंह पर लगा। उस पत्र में कितना व्यंग्य था, इसकी ओर उन्होंने कुछ ध्यान नहीं दिया। अपने एक परम मित्र को भ्रम में पड़कर कितना बदनाम किया, इसका भी उन्हें दुःख नहीं हुआ। वह बीती हुई बातों पर पछताना नहीं जानते थे। इस समय क्या करना चाहिए, इसका निश्चय करना आवश्यक था और उन्होंने तुरंत यह निश्चय कर लिया। वह दुविधा में पड़ने वाले मनुष्य न थे। कपड़े पहने और दालमंडी जा पहुंचे। सुमनबाई के मकान का पता लगाया, बेधड़क ऊपर गए और जाकर द्वार खटखटाया। हिरिया ने, जो सुमन की नायिका थी, द्वार खोल दिया।
नौ बजे गए थे। सुमन का मुजरा अभी समाप्त हुआ था। वह सोने जा रही थी। विट्ठलदास को देखकर चौंक पड़ी। उन्हें उसने कई बार शर्माजी के मकान पर देखा था। झिझककर खड़ी हो गई, सिर झुकाकर बोली– महाशय, आप इधर कैसे भूल पड़े?
विट्ठलदास सावधानी से कालीन पर बैठकर बोले– भूल तो नहीं पड़ा, जान-बूझकर आया हूं, पर जिस बात का किसी तरह विश्वास न आता था, वही देख रहा हूं। आज जब पद्मसिंह का पत्र मिला, तो मैंने समझा कि किसी ने उन्हें धोखा दिया है, पर अब अपनी आंखों को कैसे धोखा दूं? जब हमारी पूज्य ब्राह्मण महिलाएं ऐसे कलंकित मार्ग पर चलने लगीं, तो हमारे अधःपतन का अब पारावार नहीं है। सुमन, तुमने हिंदू जाति का सिर नीचा कर दिया।
सुमन ने गंभीर भाव से उत्तर दिया– आप ऐसा समझते होंगे, और तो कोई ऐसा नहीं समझता। अभी कई सज्जन यहां से मुजरा सुनकर गए हैं, सभी हिंदू थे, लेकिन किसी का सिर नीचा नहीं मालूम होता था। वह मेरे यहां आने से बहुत प्रसन्न थे। फिर इस मंडी में मैं ही एक ब्राह्मणी नहीं हूं, दो-चार का नाम तो मैं अभी ले सकती हूं, जो बहुत ऊंचे कुल की हैं, पर जब बिरादरी में अपना निबाह किसी तरह न देखा, तो विवश होकर यहां चली आईं। जब हिंदू जाति को खुद ही लाज नहीं है, तो फिर हम जैसी अबलाएं उसकी रक्षा कहां तक कर सकती हैं?
विट्ठलदास– सुमन, तुम सच कहती हो, बेशक हिंदू जाति अधोगति को पहुंच गई, और अब तक वह कभी की नष्ट हो गई होती, पर हिंदू स्त्रियों ही ने अभी तक उसकी मर्यादा की रक्षा की है। उन्हीं के सत्य और सुकीर्ति ने उसे बचाया है। केवल हिंदुओं की लाज रखने के लिए लाखों स्त्रियां आग में भस्म हो गई हैं। यही वह विलक्षण भूमि है, जहां स्त्रियां नाना प्रकार के कष्ट भोग कर, अपमान और निरादर सहकर पुरुषों की अमानुषीय क्रूरताओं को चित्त में न लाकर हिंदू जाति का मुख उज्जवल करती थीं। यह साधारण स्त्रियों का गुण था और ब्राह्मणियों का तो पूछना ही क्या? पर शोक है कि वही देवियां अब इस भांति मर्यादा का त्याग करने लगीं सुमन, मैं स्वीकार करता हूं कि तुमको घर पर बहुत कष्ट था। माना कि तुम्हारा पति दरिद्र था, क्रोधी था, चरित्रहीन था, माना कि उसने तुम्हें अपने घर से निकाल दिया था, लेकिन ब्राह्मणी अपनी जाति और कुल के नाम पर यह सब दुःख झेलती हैं। आपत्तियों का झेलना और दुरवस्था में स्थिर रहना, यही सच्ची ब्राह्मणियों का धर्म है, पर तुमने वह किया, जो नीच जाति की कुलटाएं किया करती हैं, पति से रूठकर मैके भागती हैं, और मैके में निबाह न हुआ, तो चकले की राह लेती हैं, सोचो तो कितने खेद की बात है कि जिस अवस्था में तुम्हारी लाखों बहनें हंसी-खुशी जीवन व्यतीत कर रही हैं, वही अवस्था तुम्हें इतनी असह्य हुई कि तुमने लोक-लाज, कुल-मर्यादा को लात मारकर कुपथ ग्रहण किया। क्या तुमने ऐसी स्त्रियां नहीं देखीं, जो तुमसे कहीं दीन-हीन, दरिद्र-दुःखी हैं? पर ऐसे कुविचार उनके पास नहीं फटकने पाते, नहीं तो आज यह स्वर्गभूमि नर्क के समान हो जाती। सुमन, तुम्हारे इस कर्म ने ब्राह्मण जाति का ही नहीं, समस्त हिंदू जाति का मस्तक नीचा कर दिया।
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