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सेवासदन (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :535
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8632
आईएसबीएन :978-1-61301-185

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यह उपन्यास घनघोर दानवता के बीच कहीं मानवता का अनुसंधान करता है


सुमन के मन में प्रश्न हुआ कि इतने रुपए इन्हें मिले कहां? कहीं घर से तो नहीं उठा लाए? शर्माजी इतने रुपए क्यों देने लगे? या इन्होंने उनसे कोई बहाना करके ठगे होंगे या उठा लाए होंगे। उसने विचार किया कि साड़ी लौटा दूं, लेकिन उससे उसके दुःखी हो जाने का भय था। इसके साथ ही साड़ी को रख लेने से उसके दुरुत्साह के बढ़ने की आशंका थी। निदान उसने निश्चय किया कि इसे अब की बार रख लूं, पर भविष्य के लिए चेतावनी दे दूं। बोली– इस अनुग्रह से कृतार्थ हुई, लेकिन आपसे मैं भेंट की भूखी नहीं। आपकी यही कृपा क्या कम है कि आप यहां तक आने का कष्ट करते हैं। मैं केवल आपकी कृपादृष्टि चाहती हूं।

लेकिन जब इस पारितोषिक से सदन का मनोरथ न पूरा हुआ और सुमन के बर्ताव में उसे कोई अंतर न दिखाई दिया, तो उसे विश्वास हो गया कि मेरा उद्योग-निष्फल हुआ। वह अपने मन में लज्जित हुआ कि मैं एक तुच्छ भेंट देकर उससे इतने बड़े फल की आशा रखता हूं, जमीन से उचककर आकाश से तार तोड़ने की चेष्टा करता हूं। अतएव वह कोई मूल्यवान प्रेमोपहार देने की चिंता में लीन हो गया। मगर महीनों तक उसे इसका कोई अवसर न मिला।

एक दिन वह नहाने बैठा, तो साबुन न था। वह भीतर के स्नानालय में साबुन लेने गया। अंदर पैर रखते ही उसकी निगाह ताक पर पड़ी। उस पर एक कंगन रखा हुआ था। सुभद्रा अभी नहाकर गई थी, उसने कंगन उतारकर रख दिया था, लेकिन चलते समय उसकी सुध न रही। कचहरी का समय निकट था, वह रसोई में चली गई। कंगन वहीं धरा रह गया। सदन ने उसे देखते ही लपककर उठा लिया। इस समय उसके मन में कोई बुरा भाव न था। उसने सोचा, चाची को खूब हैरान करके तब दूंगा, अच्छी दिल्लगी रहेगी। कंगन को छिपाकर बाहर लाया और संदूक में रख लिया।

सुभद्रा भोजन से निवृत्त होकर लेट रही, आलस्य आया, सोई तो तीसरे पहर को उठी। इसी बीच में पंडितजी कचहरी से आ गए, उनसे बातचीत करने लगी, कंगन का ध्यान ही न रहा। सदन कई बार भीतर गया कि देखूं इसकी कोई चर्चा हो रही थी या नहीं, लेकिन उसका कोई जिक्र न सुनाई दिया। संध्या समय जब वह सैर करने के लिए तैयार हुआ, तो एक आकस्मिक विचार से प्रेरित होकर उसने वह कंगन जेब में रख लिया। उसने सोचा, क्यों न यह कंगन सुमनबाई की नजर करूं? यहां तो सुझसे कोई पूछेगा ही नहीं और अगर पूछा भी गया तो कह दूंगा, मैं नहीं जानता। चाची, समझेंगी, नौकरों में से कोई उठा ले गया होगा। इस तरह के कुविचारों ने उसका संकल्प दृढ़ कर दिया।

उसका जी कहीं सैर में न लगा। वह उपहार देने के लिए व्याकुल हो रहा था। नियमित समय से कुछ पहले ही घोड़े को दालमंडी की तरफ फेर दिया। यहां उसने एक छोटा-सा मखमली बक्स लिया, उसमें कंगन को रखकर सुमन के यहां जा पहुंचा। वह इस बहुमूल्य वस्तु को इस प्रकार भेंट करना चाहता था, मानो वह कोई अति सामान्य वस्तु दे रहा हो। आज वह बहुत देर तक बैठा रहा। संध्या का समय उसके लिए निकाल रखा था। किंतु आज प्रेमालाप में भी उसका जी न लगता था। उसे चिंता लगी हुई थी कि यह कंगन कैसै भेंट करूं? जब बहुत देर हो गई, तो वह चुपके से उठा, जेब से बक्स निकाला और उसे पलंग पर रखकर दरवाजे की तरफ चला। सुमन ने देख लिया, पूछा– इस बक्स में क्या है!

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