उपन्यास >> सेवासदन (उपन्यास) सेवासदन (उपन्यास)प्रेमचन्द
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यह उपन्यास घनघोर दानवता के बीच कहीं मानवता का अनुसंधान करता है
यह निश्चय करके सुमन ने एक किराए की बग्घी मंगवाई और अकेले सैर को निकली। दोनों खिड़कियां बंद कर दीं, लेकिन झंझरियों से झांकती जाती थी। छावनी की तरफ दूर तक इधर-उधर ताकती चली गई, लेकिन दोनों आदमियों में कोई भी न दिखाई पड़ा। वह कोचवान को क्वींस पार्क की तरफ चलने को कहना ही चाहती थी कि सदन घोड़े को दौड़ता आता दिखाई दिया। सुमन का हृदय उछलने लगा। ऐसा जान पड़ा, मानो इसे बरसों के बाद देखा है। स्थान के बदलने से कदाचित् प्रेम में नया उत्साह आ जाता है। उसका जी चाहा कि उसे आवाज दे, लेकिन जब्त कर गई। जब तक आंखों से ओझल न हुआ, उसे सतृष्ण प्रेम-दृष्टि से देखती रही। सदन के सर्वांगपूर्ण सौंदर्य पर वह कभी इतनी मुग्ध न हुई थी।
बग्घी क्वींस पार्क की ओर चली। यह पार्क शहर से दूर था। बहुत कम लोग इधर जाते थे। लेकिन पद्मसिंह का एकांत-प्रेम उन्हें यहां खींच लाता था। यहां विस्तृत मैदान में एक तकियेदार बेंच पर बैठे हुए घंटों विचार में मग्न रहते। ज्योंही बग्घी फाटक के भीतर आई, सुमन को शर्माजी मैदान में अकेले बैठे दिखाई दिए। सुमन का हृदय दीपशिखा की भांति थरथराने लगा। भय की इस दशा का ज्ञान पहले होता, तो वह यहां तक आ ही न सकती। लेकिन इतनी दूर आकर और शर्माजी को सामने बैठे देखकर, निष्काम लौट जाना मूर्खता थी। उसने जरा दूर पर बग्घी रोक दी और गाड़ी से उतरकर शर्माजी की ओर चली, उसी प्रकार जैसे शब्द वायु के प्रतिकूल चलता है।
शर्माजी कुतूहल से बग्घी देख रहे थे। उन्होंने सुमन को पहचाना नहीं। आश्चर्य हो रहा था कि यह कौन महिला इधर चली आती है। विचार किया कि कोई ईसाई लेडी होगी, लेकिन जब सुमन समीप आ गई, तो उन्होंने उसे पहचाना। एक बार उसकी ओर दबी आंखों से देखा, फिर जैसे हाथ-पांव फूल गए हों। जब सुमन सिर झुकाए हुए उनके सामने आकर खड़ी हो गई, तो वह झेंपे हुए दीनतापूर्ण नेत्रों से इधर-उधर देखने लगे, मानो छिपने के लिए कोई बिल ढूंढ़ रहे हों। तब अकस्मात वह लपककर उठे। और पीछे की ओर फिरकर वेग के साथ चलने लगे। सुमन पर जैसे वज्रपात हो गया। वह क्या आशा मन में लेकर आई थी और क्या आंखों से देख रही है। प्रभो, यह मुझे इतना नीच और अधम समझते हैं कि मेरी परछाईं से भी भागते हैं। वह श्रद्धा जो उसके हृदय में शर्माजी के प्रति उत्पन्न हो गई थी, क्षणमात्र में लुप्त हो गई। बोली– मैं आप ही से कुछ कहने आई हूं। जरा ठहरिए, मुझ पर इतनी कृपा कीजिए।
शर्माजी ने और भी तेजी से कदम बढ़ाया, जैसे कोई भूत से भागे। सुमन से यह अपमान न सहा गया। तीव्र स्वर में बोली– मैं आपसे कुछ मांगने नहीं आई हूं कि आप इतना डर रहे हैं। मैं आपको केवल यह कंगन देने आई हूं। यह लीजिए, अब मैं आप ही चली जाती हूं।
यह कहकर उसने कंगन निकालकर शर्माजी की तरफ फेंका।
सुमन बग्घी की तरफ कई कदम जा चुकी थी। शर्माजी उसके निकट आकर बोले– तुम्हें यह कंगन कहां मिला?
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